शुद्धि और आचमन : मंदिर में प्रवेश के पूर्व पुन: एक बार शरीर की
शुद्धि की जाती है। शौचादि से निवृत्ति होने के बाद पूजा, प्रार्थना के पूर्व आचमन किया जाता है। मंदिर में जाकर भी
सबसे पहले आचमन किया जाता है। संध्या वंदन के आचमन, प्राणायामादि कर गायत्री छंद से निराकार ईश्वर की प्रार्थना की जाती है।
बहुत से लोग मंदिर में शौच या शुद्धि किए बगैर चले जाते हैं जो कि अनुचित है।
प्रात्येक मंदिर के बाहर या प्रांगण में नल जल की उचित व्यवस्था होनी चाहिए जहां
व्यक्ति बैठकर अच्छे से खुद को शुद्ध कर सके। जल का उचित स्थान नहीं है तो यह
मंदिर दोष में गिना जाएगा।
शुद्धि के बाद आचमन करने का विधान है। आचमन का अर्थ होता है जल पीना।
प्रार्थना, दर्शन, पूजा, यज्ञ आदि आरंभ करने से पूर्व शुद्धि के लिए मंत्र पढ़ते हुए जल पीना ही आचमन
कहलाता है।इससे मन और हृदय की शुद्धि होती है। आचमनी का अर्थ एक छोटा तांबे का
लोटा और तांबे की चम्मच को आचमनी कहते हैं।छोटे से तांबे के लोटे में जल भरकर
उसमें तुलसी डालकर हमेशा पूजा स्थल पर रखा जाता है या साथ ले जाया जाता है। यह जल
आचमन का जल कहलाता है।इस जल को तीन बार ग्रहण किया जाता है। माना जाता है कि ऐसे
आचमन करने से पूजा का दोगुना फल मिलता है। प्रत्येक हिंदू को मंदिर जाने वक्त धोती
पहनकर, हाथ में आचमनी लेकर मंदिर जाना चाहिए।
मनुस्मृति में कहा गया है कि- नींद से जागने के बाद, भूख लगने पर, भोजन करने के बाद, छींक आने पर,
असत्य भाषण होने पर, पानी पीने के बाद, और अध्ययन करने के बाद आचमन जरूर करें।
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