देवताओं को छत्र क्यों चढ़ाया जाता है?
देवताओं के श्रृंगार, अलंकरण या महिमा मंडन के लिए जो चीजें उपयोग में लाई जाती
हैं। उनमें छत्र प्रमुख है। यह राज सत्ता और अधिकार का भी प्रतीक है। प्राचीन समय
में राजा के पीछे छत्र लगाने का विधान था। जो एक तरह की छाया, सम्मान और
सत्ता का सूचक है। राजपद सूचक उपकरणों में भी छत्र प्रधान हैं, जो
राज्याभिषेक के समय से ही राजा के ऊपर रहता था। इसलिए राजा को छत्रपति की पदवी दी
जाती थी। देवताओं के ऊपर प्राय: आभा मंडल के रूप में छत्र का अंकन हुआ है।
उदाहरण के लिए भगवान विष्णु को चित्रों में जब क्षीरसागर
में शयन करते दर्शाया जाता है तो उनके सिर पर सहस्त्र मुख के शेष नाग छत्र की
भांति छाए रहते हैं।इसी तरह देवी लक्ष्मी के चित्रों व प्रतिमाओं में अपनी सूंडों
से जल वर्षा करते दो हाथियों का अंकन होता है, जो
छत्र का ही एक रूप माना गया है। ध्यान रहे देवताओं के चित्र व प्रतिमाओं के पीछे
जो एक गोलाकार बनाया जाता है, वह
भी छत्र का ही एक रूप है। यह ठीक वैसा ही है जैसा किसी पर विशेष रूप से प्रकाश
डाला जाए, अर्थात फोकस किया जाए। ऐसा
इसलिए कि देवता परंपरागत धार्मिक मन्यताओं के अनुसार विशेष शक्तियों से विभूषित
माने गए हैं। इस आभा मंडल या छत्र के माध्यम से इनकी इन्हीं विशेष शक्तियों को
प्रतीकात्मक रूप से प्रदर्शित किया जाता है। राजा के संदर्भ में भी इसका यही अर्थ
है।
भगवान विष्णु के सिर पर शेषनाग क्यों है?
नागराज अनंत को ही शेष भी कहा गया है। जो भगवान विष्णु के प्रिय और स्वयं भगवत स्वरूप माने गए हैं। प्रलयकाल में नई सृष्टि से पूर्व विश्व का जो शेष या मूल अव्यक्त रह जाता है। हिंदू धर्मकोश के अनुसार वे उसी के प्रतीक माने गए हैं। भविष्य पुराण में इनका ध्यान एक हजार फन वाले सर्प के रूप में किया गया है। ये जीव तत्व के अधिष्ठाता हैं और ज्ञान व बल नाम के गुणों की इनमें प्रधानता होती है। इनका आवास पाताल लोक के मूल में माना गया है। प्रलयकाल में इन्हीं के मुखों से संवर्तक अग्नि प्रकट होकर पूरे संसार को भस्म करती है। ये भगवान विष्णु के पलंग के रूप में क्षीर सागर में रहते हैं और अपने हजार मुखों से भगवान का गुणानुवाद करते हैं।
नागराज अनंत को ही शेष भी कहा गया है। जो भगवान विष्णु के प्रिय और स्वयं भगवत स्वरूप माने गए हैं। प्रलयकाल में नई सृष्टि से पूर्व विश्व का जो शेष या मूल अव्यक्त रह जाता है। हिंदू धर्मकोश के अनुसार वे उसी के प्रतीक माने गए हैं। भविष्य पुराण में इनका ध्यान एक हजार फन वाले सर्प के रूप में किया गया है। ये जीव तत्व के अधिष्ठाता हैं और ज्ञान व बल नाम के गुणों की इनमें प्रधानता होती है। इनका आवास पाताल लोक के मूल में माना गया है। प्रलयकाल में इन्हीं के मुखों से संवर्तक अग्नि प्रकट होकर पूरे संसार को भस्म करती है। ये भगवान विष्णु के पलंग के रूप में क्षीर सागर में रहते हैं और अपने हजार मुखों से भगवान का गुणानुवाद करते हैं।
भक्तों के सहायक और जीव को भगवान की शरण में ले जाने वाले
भी शेष ही हैं, क्योंकि इनके बल, पराक्रम और प्रभाव को गंधर्व, अप्सरा, सिद्ध, किन्नर, नाग आदि भी नही जान पाते, इसलिए इन्हें अनंत भी कहा गया
है। ये पंचविष ज्योति सिद्धांत के प्रवर्तक माने गए हैं। भगवान के निवास शैया, आसन, पादुका, वस्त्र, पाद पीठ, तकिया और छत्र के रूप में शेष
यानी अंगीभूत होने के कारण् इन्हें शेष कहा गया है। लक्ष्मण और बलराम इन्हीं के
अवतार हैं जो राम व कृष्ण लीला में भगवान के परम सहायक बने।
विष्णुजी के हाथ में सुदर्शन चक्र क्यों रहता है?
हर देवता के अपने आयुध यानी हथियार है। स्वभाव से देवता भले लोगों को कष्ट देने वाले बुरे लोगों में लड़ाई करते हैं और इनका संहार करते हैं। हथियारों के दो प्रकार हैं अस्त्र और शस्त्र। अस्त्र वह जिसे फेंककर दूसरस्थ शत्रु पर प्रहार किया जाए। शस्त्र वह जिसका उपयोग निकट शत्रु पर प्रहार करने में किया जाए। विष्णु के हाथों में दो हथियार होते हैं गदा जो शस्त्र है और चक्र जो अस्त्र है यानी यदि शत्रु दूरी पर है तो उसे मारने के लिए अस्त्र की आवश्यकता होगी।
हर देवता के अपने आयुध यानी हथियार है। स्वभाव से देवता भले लोगों को कष्ट देने वाले बुरे लोगों में लड़ाई करते हैं और इनका संहार करते हैं। हथियारों के दो प्रकार हैं अस्त्र और शस्त्र। अस्त्र वह जिसे फेंककर दूसरस्थ शत्रु पर प्रहार किया जाए। शस्त्र वह जिसका उपयोग निकट शत्रु पर प्रहार करने में किया जाए। विष्णु के हाथों में दो हथियार होते हैं गदा जो शस्त्र है और चक्र जो अस्त्र है यानी यदि शत्रु दूरी पर है तो उसे मारने के लिए अस्त्र की आवश्यकता होगी।
भगवान शिव अपने पास त्रिशूल और धनुष बाण दोनों रखते हैं।
बाण अस्त्र हैं व त्रिशूल शस्त्र। रामजी के पास भी धनुष बाण के अलावा तलवार होती
है। यह भी माना जाता है कि सुदर्शन चक्र श्रीकृष्ण के पास था।
यह गोफन की तरह एक हथियार था, जो
श्रीकृष्ण को भेंट में मिला था। इसका उपयोग उन्होंने केवल एक बार शिशुपाल वध के
लिए किया। श्रीकृष्ण विष्णु के अवतार माने जाते हैं। इसलिए कालांतर में इस चक्र को
विष्णु का आयुध भी मान लिया गया।
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