Thursday, August 31, 2017

सनातन धर्म की 5 परंपराएं पूरी तरह साइंटिफिक हैं

सनातन धर्म दुनिया का सबसे प्राचीन धर्म माना जाता है। इस धर्म में अनेक देवी देवताओं की पूजा होती है और सभी देवता प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से प्रकृति से जुड़े होते हैं। ये धर्म वास्तव में प्रकृति के विभिन्न रूपों की पूजा करने की शिक्षा देता है जो अन्य किसी धर्म में नहीं है। इसलिए हम सनातन धर्म को विज्ञान पर आधारित धर्म कहते हैं। इसलिए आज हम आपको बताते हैं वो 5 कारण जिनसे पता चलता है कि हमारी परंपराएं व हमारा धर्म पूरी तरह विज्ञान पर आधारित है ...

1.    घी के दिए जलाना
दीए जलाने से केवल घर ही नहीं जीवन में भी प्रकाश होता है, क्योंकि इन्हें जलाने से सकारात्मक ऊर्जा पैदा होती है। घी का दिया कार्बोनडाईऑक्साइड जैसी हानिकारक गैसों को खत्म करता है। साथ ही, तेल के दिए से हानिकारण कीटाणु भी समाप्त हो जाते है।यही कारण है कि दीपावली का त्योहार बारिश के मौसम के बाद मनाया जाता है।

2.      शंख बजाना
शंख सनातन संस्कृति का महत्वपूर्ण अंग है। शंख बजाने से जो ध्वनी निकलती है उससे सभी हानिकारक जीवाणु खत्म हो जाते हैं। शंख मलेरिया फैलाने वाले मच्छरों को भी दूर रखता है। साथ ही, यह कान से जुड़े रोगों से बचाता है। शंख बजाने से सांस के रोग भी खत्म हो जाते हैं।

3.    तुलसी पूजन
सनातन धर्म में तुलसी को बहुत ही पवित्र माना जाता है जिसका अपना वैज्ञानिक कारण है। तुलसी अपने आप में एक उत्तम औषधि है जो कई प्रकार की बीमारियों से छुटकारा दिलाती है। खांसी, जुकाम और बुखार में तुलसी एक अचूक रामबाण है। तुलसी लगाने से कई हानिकारक जीवाणु और मच्छर आदि दूर रहते हैं।

4.      तिलक लगाना
भौहों के बीच में एक नर्व पॉइंट होता है। जिस कारण यहां पर तिलक लगाने से अध्यात्मिक शक्ति का संचार होता है। इससे किसी वस्तु पर ध्यान केंद्रित करने की शक्ति बढती है। साथ ही, यह दिमाग में ब्लड सर्कुलेशन को नियंत्रित रखता है।

5.      पीपल की पूजा
वैज्ञानिक प्रयोगों सिद्ध हो चूका है कि पूरी पृथ्वी पर एकमात्र पीपल का पेड़ ही 24 घंटे ऑक्सीजन देता है। जिस कारण से पीपल का महत्व और भी बढ़ जाता है। इसलिए आज भी पीपल को सींच कर उसकी परिक्रमा की जाती है। पीपल के पत्ते दिल से जुड़े रोगों में औषधि की तरह उपयोग में लाए जाते हैं।

Wednesday, August 30, 2017

बड़ी से बड़ी परेशानी भी नहीं पहुंचा पाएगी नुकसान, बस ध्यान रखनी होगी ये 3 बातें

महाभारत के शांतिपर्व में पितामाह भीष्म ने युधिष्ठिर को कई ज्ञान की बातें बताई थीं। वे बातें न की सिर्फ उस समय में बल्कि आज के समय में भी बहुत उपयोगी मानी जाती है। महाभारत में तीन ऐसे लोगों के बारे में बताया गया है, जो किसी भी परिस्थिति का सामना आसानी से कर सकते हैं।

न हि बुद्धयान्वितः प्राज्ञो नीतिशास्त्रविशारदः।
निमज्जत्यापदं प्राप्य महतीं दारुणमपि।।

अर्थात-बुद्धिमान, विद्वान और नीतिशास्त्र में निपुण व्यक्ति भारी और भयंकर विपत्ति आने पर भी उसमें फंसता नहीं है।

अपनी बुद्धि से ही पार की थी युधिष्ठिर ने धर्म की परीक्षा
महाभारत में दी गई एक कथा के अनुसार, पांडवों के वनवास के दौरान एक बार खुद यमराज ने युधिष्ठिर की बुद्धिमानी की परीक्षा लेनी चाही। इसी उद्देश्य से यमराज ने यक्ष का रूप धारण कर लिया। यक्षरूपी यमराज ने सरोवर के पास एक-एक करके सभी पांडवों की परीक्षा ली, जिसमें पार न करने की वजह से युधिष्ठिर को छोड़ कर बाकी चारों पांडव सरोवर के पास मृत पड़े थे। जब युधिष्ठिर ने अपने सभी भाइयों को मरा हुआ पाया तब यक्ष से उनको जीवित करने को कहा। यक्ष ने ऐसा करने के लिए युधिष्ठिर के सामने एक शर्त रखी। शर्त यह थी कि धर्म युधिष्ठिर से कुछ सवाल करेंगे और अगर युधिष्ठिर ने उनके सही जवाब दे दिए, तो वह यक्ष उसने सभी भाइयों को जीवित कर देगा। ऐसी विपरीत परिस्थिति में भी युधिष्ठिर ने अपनी बुद्धिमानी से यक्ष की परीक्षा पार कर ली और अपने सभी भाइयों को फिर से जीवित करा लिया। इसलिए कहते है बुद्धिमान मनुष्य अपनी सुझ-बूझ से हर परेशानी का हल निकल सकता है।

पहले ही कौरव वंश के विनाश की बात कह चुके थें विद्वान विदुर
कहा जाता है कि जब दुर्योधन का जन्म हुआ था, तब वह जन्म होते ही गीदड़ की तरह जोर-जोर से रोने लगा और शोर मचाने लगा। विदुर महाविद्वान थे, उन्होंने दुर्योधन को देखते ही धृतराष्ट्र को उसका त्याग कर देने की सलाह दी थी। वह जान समझ गए थे कि यह बालक ही कौरव वंश के विनाश का कारण बनेगा। इसके अलावा विदुर ने जीवनभर अपने विद्वान होने के प्रमाण दिए हैं। वे हर समय धृतराष्ट्र को सही सलाह देते थे, लेकिन अपने पुत्र के प्यार में धृतराष्ट्र विद्वान विदुर की बातों को समझ न सकें और इसी वजह से उनके कुल का नाश हो गया।

पांडवों को हर परिस्थिति में बचाया श्रीकृष्ण की नीतियों ने
श्रीकृष्ण एक सफल नीतिकार थे। वे सभी तरह की नीतियों के बारे में जानते थे। कौरवों ने जीवनभर पांडवों के लिए कोई न कोई परेशानियां खड़ी की, लेकिन श्रीकृष्ण ने अपनी सफल नीतियों से पांडवों को हर वक्त सहायता की। अगर पांडवों के पास श्रीकृष्ण के जैसे नीतिकार न होते तो शायद पांडव युद्ध में कभी विजयी नहीं हो पाते। उसी तरह नीतियों को जानने वाले और उनका पालन करने वाले व्यक्ति के सामने कैसी भी परेशानी आ जाएं, वह उसका सामान आसानी से कर लेता है।

Tuesday, August 29, 2017

राधा जन्माष्टमी

धर्म ग्रंथों के अनुसार, भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को राधा जन्माष्टमी का पर्व मनाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि इसी दिन व्रज में श्रीकृष्ण के प्रेयसी राधा का जन्म हुआ था। ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार, राधा भी श्रीकृष्ण की तरह ही अनादि और अजन्मी हैं, उनका जन्म माता के गर्भ से नहीं हुआ। इस पुराण में राधा के संबंध में बहुत ही ऐसी बातें बताई गई हैं जो बहुत कम लोग जानते हैं।

ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार, श्रीकृष्ण के बाएं अंग से एक सुंदर कन्या प्रकट हुई, प्रकट होते ही उसने भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में फूल अर्पित किए। श्रीकृष्ण से बात करते-करते वह उनके साथ सिंहासन पर बैठ गई। यह सुंदर कन्या ही राधा हैं।

एक बार गोलोक में श्रीकृष्ण विरजादेवी के समीप थे। श्रीराधा को यह ठीक नहीं लगा। श्रीराधा सखियों सहित वहां जाने लगीं, तब श्रीदामा नामक गोप ने उन्हें रोका। इस पर श्रीराधा ने उस गोप को असुर योनि में जन्म लेने का श्राप दे दिया। तब उस गोप ने भी श्रीराधा को यह श्राप दिया कि आपको भी मानव योनि में जन्म लेना पड़ेगा। वहां गोकुल में श्रीहरि के ही अंश महायोगी रायाण नामक एक वैश्य होंगे। आपका छाया रूप उनके साथ रहेगा। भूतल पर लोग आपको रायाण की पत्नी ही समझेंगे, श्रीहरि के साथ कुछ समय आपका विछोह रहेगा।

ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार, जब भगवान श्रीकृष्ण के अवतार का समय आया तो उन्होंने राधा से कहा कि तुम शीघ्र ही वृषभानु के घर जन्म लो। वृषभानु की पत्नी बड़ी ही साध्वी हैं, उनका नाम कलावती है। वे लक्ष्मी के अंश से प्रकट हुई हैं। वास्तव में वे पितरों की मानसी कन्या हैं। श्रीराधा ने गोकुल में अवतार लिया। वे व्रज में वृषभानु वैश्य की कन्या हुईं।

राधा देवी अयोनिजा थीं, यानी वे माता के गर्भ से उत्पन्न नहीं हुई थीं। उनकी माता ने गर्भ में वायु को धारण कर रखा था। उन्होंने योगमाया की प्रेरणा से वायु को ही जन्म दिया परंतु वहां स्वेच्छा से श्रीराधा प्रकट हो गईं। 12 वर्ष बीतने पर माता-पिता ने राधा का विवाह रायाण नामक वैश्य के साथ कर दिया। उस समय राधा घर में अपनी छाया को स्थापित करके स्वयं अंतर्धान हो गई।

उस छाया के साथ ही रायाण का विवाह हुआ। कुछ समय तक श्रीकृष्ण वृंदावन में श्रीराधा के साथ आमोद-प्रमोद करते रहे। इसके बाद श्रीदामा के श्राप के कारण उनका वियोग हो गया। इस बीच में श्रीकृष्ण ने पृथ्वी का भार उतारा। सौ वर्ष पूर्ण हो जाने पर तीर्थयात्रा के प्रसंग से श्रीराधा ने श्रीकृष्ण का दर्शन प्राप्त किया। इसके बाद श्रीकृष्ण राधा के साथ गोलोकधाम पधारे।

इस प्रकार करें राधा जन्माष्टमी का व्रत
श्रीराधा जन्माष्टमी पर व्रत रखें व विधिविधान से राधाकृष्ण की प्रतिमा की पूजा करें। श्रीराधाकृष्ण के मंदिर में ध्वजा, पुष्पमाला, वस्त्र, तोरण आदि अर्पित करें तथा श्रीराधाकृष्ण की प्रतिमा को सुगंधित फूल, धूप, गंध आदि चढ़ाएं। मंदिर के बीच में पांच रंगों से मंडप बनाकर उसके अंदर सोलह दल के आकार का कमल यंत्र बनाएं। उस कमल यंत्र के बीच में श्रीराधाकृष्ण की मूर्ति पश्चिम दिशा में मुख
कर स्थापित करें।

इसके बाद अपनी शक्ति के अनुसार पूजा की सामग्री से उनकी पूजा अर्चना कर नैवेद्य चढ़ाएं। दिन में इस प्रकार पूजा करने के बाद रात में जागरण करें। जागरण के दौरान भक्ति पूर्वक श्रीकृष्ण व राधा के भजनों को सुनें। शास्त्रों के अनुसार, जो मनुष्य इस प्रकार श्रीराधाष्टमी का व्रत करता है उसके घर सदा लक्ष्मी निवास करती है। यह व्रत सुख-समृद्धि प्रदान करने वाला है। जो भक्त इस व्रत को करते हैं उसे विष्णु लोक में स्थान मिलता है।

Saturday, August 26, 2017

मोदक प्रिय हैं गणेश जी को

भगवान शिव को भांग धतूरा पसंद है तो मां काली को खिचड़ी, देवी लक्ष्मी को खीर पसंद है तो गणेश जी को प्रसाद के रूप में मोदक सबसे प्रिय है। गणेश जी का मोदक प्रेम ऐसा है कि तस्वीरों में गणेश जी के एक हाथ में मोदक जरूर दिखता है। कुछ तस्वीरों में तो गणेश जी का वाहन मूषक भी गणेश जी के साथ मोदक खाता हुआ दिखता है।

गणपत्यथर्वशीर्ष में तो यहां तक लिखा है कि, "यो मोदकसहस्त्रेण यजति स वांछितफलमवाप्नोति।" यानी जो भक्त गणेश जी को एक हजार मोदक का भोग लगाता है गणेश जी उसे मनचाहा फल प्रदान करते हैं यानी उनकी मुरादें पूरी होती हैं। मोदक के प्रति गणेश जी का यह प्रेम यूं ही नहीं है।
दरअसल गणेश जी का एक दांत टूटा हुआ है इसलिए गणेश जी एकदंत कहलाते हैं। मोदक तलकर और स्टीम करके दो तरह से बनाए जाते हैं। दोनों ही तरह से बने मोदक मुलायम और आसानी से मुंह में घुल जाने वाले होते हैं इसलिए टूटे दांत होने पर भी गणेश जी इसे आसानी से खा लेते हैं। इसलिए बिद्धिमान गणेश जी को मोदक बेहद पसंद है।

मोदक को शुद्ध आटा, घी, मैदा, खोआ, गुड़, नारियल से बनाया जाता है। इसलिए यह स्वास्थ्य के लिए गुणकारी और तुरंत संतुष्टिदायक होता है। यही वजह है कि इसे अमृततुल्य माना गया है। मोदक के अमृततुल्य होने की कथा पद्म पुराण के सृष्टि खंड में मिलती है।
गणेश पुराण के अनुसार देवताओं ने अमृत से बना एक मोदक देवी पार्वती को भेंट किया। गणेश जी ने जब माता पार्वती से मोदक के गुणों को जाना तो उसे खाने की इच्छा तीव्र हो उठी और प्रथम पूज्य बनकर चतुराई पूर्वक उस मोदक को प्राप्त कर लिया। इस मोदक को खाकर गणेश जी को अपार संतुष्टि हुई तब से मोदक गणेश जी का प्रिय हो गया।

यजुर्वेद में गणेश जी को ब्रह्माण्ड का कर्ता धर्ता माना गया है। इनके हाथों में मोदक ब्रह्माण्ड का स्वरूप है जिसे गणेश जी ने धारण कर रखा है। प्रलयकाल में गणेश जी ब्रह्माण्ड रूपी मोदक को खाकर सृष्टि का अंत करते हैं और फिर सृष्टि के आरंभ में ब्रह्मण्ड की रचना करते हैं। गणेश पुराण में भी इस बात का उल्लेख मिलता है कि गणेश जी परब्रह्म हैं इनकी उपासना से ही देवी पार्वती के गणेश जो गजानन भी हैं पुत्र रूप में प्राप्त हुए।

गणेश जी को शास्त्रों और पुराणों में मंगलकारी माना गया है। मोदक गणेश जी के इसी व्यक्तित्व को दर्शाता है। मोदक का अर्थ होता है आनंद देने वाला। गणेश जी मोदक खाकर आनंदित होते हैं और भक्तों को आनंदित करते हैं।

Thursday, August 24, 2017

हरितालिका तीज व्रत, ये है कथा व महत्व

भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को हरितालिका तीज का व्रत किया जाता है। इस बार ये व्रत 24 अगस्त, गुरुवार को है। विधि-विधान से हरितालिका तीज का व्रत करने से कुंवारी कन्याओं को मनचाहे वर की प्राप्ति होती है, वहीं विवाहित महिलाओं को अखंड सौभाग्य मिलता है। इस व्रत की विधि इस प्रकार है-
विधि
इस दिन महिलाएं निर्जल (बिना कुछ खाए-पीए) रहकर व्रत करती हैं। इस व्रत में बालूरेत से भगवान शंकर व माता पार्वती का मूर्ति बनाकर पूजन किया जाता है। घर को साफ-स्वच्छ कर तोरण-मंडप आदि से सजाएं। एक पवित्र चौकी पर शुद्ध मिट्टी में गंगाजल मिलाकर शिवलिंग, रिद्धि-सिद्धि सहित गणेश, पार्वती एवं उनकी सखी की आकृति (प्रतिमा) बनाएं।

प्रतिमाएं बनाते समय भगवान का स्मरण करें। देवताओं का आह्वान कर षोडशोपचार पूजन करें। व्रत का पूजन रात भर चलता है। महिलाएं जागरण करती हैं और कथा-पूजन के साथ कीर्तन करती हैं। प्रत्येक प्रहर में भगवान शिव को सभी प्रकार की वनस्पतियां जैसे बिल्व-पत्र, आम के पत्ते, चंपक के पत्ते एवं केवड़ा अर्पण किया जाता है। आरती और स्तोत्र द्वारा आराधना की जाती है। भगवती-उमा की पूजा के लिए ये मंत्र बोलें-

ऊं उमायै नम:, ऊं पार्वत्यै नम:,
 ऊं जगद्धात्र्यै नम:, ऊं जगत्प्रतिष्ठयै नम:,
ऊं शांतिरूपिण्यै नम:, ऊं शिवायै नम:

भगवान शिव की आराधना इन मंत्रों से करें-
ऊं हराय नम:, ऊं महेश्वराय नम:,
ऊं शम्भवे नम:, ऊं शूलपाणये नम:,
ऊं पिनाकवृषे नम:, ऊं शिवाय नम:,
ऊं पशुपतये नम:, ऊं महादेवाय नम:
पूजा दूसरे दिन सुबह समाप्त होती है, तब महिलाएं अपना व्रत तोड़ती हैं और अन्न ग्रहण करती हैं।

धर्म ग्रंथों के अनुसार हरितालिका तीज व्रत की कथा भगवान शंकर ने पार्वती को उनके पूर्व जन्म का स्मरण कराने के लिए सुनाई थी, जो इस प्रकार है-
पार्वती अपने पूर्व जन्म में राजा दक्ष की पुत्री सती थीं। सती के रूप में भी वे भगवान शंकर की प्रिय पत्नी थीं। एक बार सती के पिता दक्ष ने एक महान यज्ञ का आयोजन किया, लेकिन उसमें द्वेषतावश भगवान शंकर को आमंत्रित नहीं किया। जब यह बात सती को पता चली तो उन्होंने भगवान शंकर से यज्ञ में चलने को कहा, लेकिन आमंत्रित किए बिना भगवान शंकर ने जाने से इंकार कर दिया। तब सती स्वयं यज्ञ में शामिल होने चली गईं।
वहां उन्होंने अपने पति शिव का अपमान होने के कारण यज्ञ की अग्नि में देह त्याग दी। अगले जन्म में सती का जन्म हिमालय राजा और उनकी पत्नी मैना के यहां हुआ। बाल्यावस्था में ही पार्वती भगवान शंकर की आराधना करने लगी और उन्हें पति रूप में पाने के लिए घोर तप करने लगीं। यह देखकर उनके पिता हिमालय बहुत दु:खी हुए। हिमालय ने पार्वती का विवाह भगवान विष्णु से करना चाहा, लेकिन पार्वती भगवान शंकर से विवाह करना चाहती थी।

पार्वती ने यह बात अपनी सखी को बताई। वह सखी पार्वती को एक घने जंगल में ले गई। पार्वती ने जंगल में मिट्टी का शिवलिंग बनाकर कठोर तप किया, जिससे भगवान शंकर प्रसन्न हुए। उन्होंने प्रकट होकर पार्वती से वरदान मांगने को कहा। पार्वती ने भगवान शंकर से अपनी धर्मपत्नी बनाने का वरदान मांगा, जिसे भगवान शंकर ने स्वीकार किया। इस तरह माता पार्वती को भगवान शंकर पति के रूप में प्राप्त हुए।

महिलाओं में संकल्प शक्ति बढ़ाता है ये व्रत
हरितालिका तीज का व्रत महिला प्रधान है। इस दिन महिलाएं बिना कुछ खाए-पिए व्रत रखती हैं। यह व्रत संकल्प शक्ति का एक अनुपम उदाहरण है। संकल्प अर्थात किसी कर्म के लिए मन में निश्चय करना। कर्म का मूल संकल्प है। इस प्रकार संकल्प हमारी आंतरिक शक्तियों का सामूहिक निश्चय है। इसका अर्थ है- व्रत संकल्प से ही उत्पन्न होता है। व्रत का संदेश यह है कि हम जीवन में लक्ष्य प्राप्ति का संकल्प लें। संकल्प शक्ति के आगे असंभव दिखाई देता लक्ष्य संभव हो जाता है। माता पार्वती ने जगत को दिखाया कि संकल्प शक्ति के सामने ईश्वर भी झुक जाता है।

अच्छे कामों का संकल्प सदा सुखद परिणाम देता है। इस व्रत का एक सामाजिक संदेश विशेषतः: महिलाओं के संदर्भ में यह है कि आज समाज में महिलाएं बीते समय की तुलना में अधिक आत्मनिर्भर और स्वतंत्र हैं। महिलाओं की भूमिका में भी बदलाव आए हैं। घर से बाहर निकलकर पुरुषों की भांति सभी कार्य क्षेत्रों में सक्रिय हैं। ऐसी स्थिति में परिवार और समाज इन महिलाओं की भावनाओं एवं इच्छाओं का सम्मान करें, उनका विश्वास बढ़ाएं, ताकि स्त्री और समाज सशक्त बनें।

Wednesday, August 23, 2017

गणेशजी की पीठ के दर्शन करने से बचना चाहिए, ये है मान्यता

गणेश पूजा से जुड़ी कुछ ऐसी बातें हैं, जिनका ध्यान रखने से गणपति जल्दी प्रसन्न होते हैं। शास्त्रों के अनुसार गणेशजी के सभी अंगों पर जीवन और ब्रह्मांड से जुड़े खास अंग विराजमान हैं। गणेशजी की पीठ पर दरिद्रता यानी गरीबी निवास करती है। इसी वजह से इनकी पीठ के दर्शन वर्जित किए गए हैं। जो लोग उनकी पीठ के दर्शन करते हैं, उन्हें धन की कमी का सामना करना पड़ सकता है।

गणेशजी की सूंड पर धर्म विद्यमान है तो कानों पर ऋचाएं, दाएं हाथ में वर, बाएं हाथ में अन्न, पेट में समृद्धि, नाभी में ब्रह्मांड, आंखों में लक्ष्य, पैरों में सातों लोक और मस्तक में ब्रह्मलोक विद्यमान है। गणेशजी के सामने से दर्शन करने पर ये सभी सुख प्राप्त होते हैं।

गणेशजी की पीठ पर दरिद्रता का वास होता है। गणेशजी की पीठ के दर्शन करने वाला व्यक्ति यदि बहुत धनवान भी हो तो उसके घर पर दरिद्रता का प्रभाव बढ़ जाता है। इसी वजह से इनकी पीठ नहीं देखना चाहिए। जाने-अनजाने पीठ देख ले तो गणेशजी से क्षमा याचना कर उनका पूजन करना चाहिए। तब बुरा प्रभाव नष्ट हो जाता है।       

Tuesday, August 22, 2017

कुशग्रहणी अमावस्या

भाद्रपद मास की अमावस्या तिथि को कुशग्रहणी अमावस्या कहते हैं। धर्म ग्रंथों में इसे कुशोत्पाटिनी अमावस्या भी कहा गया है। इस दिन वर्ष भर किए जाने वाले धार्मिक कामों तथा श्राद्ध आदि कामों के लिए कुश (एक विशेष प्रकार की घास, जिसका उपयोग धार्मिक व श्राद्ध आदि कार्यों में किया जाता है) एकत्रित किया जाता है। यह तिथि पूर्वान्ह्व्यापिनी ली जाती है। हिंदुओं के अनेक धार्मिक क्रिया-कलापों में कुश का उपयोग आवश्यक रूप से होता है-

पूजाकाले सर्वदैव कुशहस्तो भवेच्छुचि:।
कुशेन रहिता पूजा विफला कथिता मया।।
(
शब्दकल्पद्रुम)

अत: प्रत्येक गृहस्थ को इस दिन कुश का संचय (इकट्‌ठा) करना चाहिए। शास्त्रों में दस प्रकार के कुशों का वर्णन मिलता है-
कुशा: काशा यवा दूर्वा उशीराच्छ सकुन्दका:।
गोधूमा ब्राह्मयो मौन्जा दश दर्भा: सबल्वजा:।।

इनमें से जो भी कुश इस तिथि को मिल जाए, वही ग्रहण कर लेना चाहिए। जिस कुश में पत्ती हो, आगे का भाग कटा न हो और हरा हो, वह देव तथा पितृ दोनों कार्यों के लिए उपयुक्त होता है। कुश निकालने के लिए इस तिथि को सूर्योदय के समय उपयुक्त स्थान पर जाकर पूर्व या उत्तराभिमुख बैठकर यह मंत्र पढ़ें और दाहिने हाथ से एक बार में कुश उखाड़ें-
विरंचिना सहोत्पन्न परमेष्ठिन्निसर्गज।
नुद सर्वाणि पापानि दर्भ स्वस्तिकरो भव।।

इसलिए धार्मिक कार्यों में उपयोग किया जाता है कुश
धार्मिक अनुष्ठानों में कुश नाम की घास से बना आसन बिछाया जाता है। पूजा-पाठ आदि कर्मकांड करने से इंसान के अंदर जमा आध्यात्मिक शक्ति पुंज का संचय कहीं लीक होकर फालतू न हो जाए यानी पृथ्वी में न समा जाए, उसके लिए कुश का आसन वि्द्युत कुचालक का काम करता है। इस आसन के कारण पार्थिव विद्युत प्रवाह पैरों से शक्ति को खत्म नहीं होने देता है। कहा जाता है कि कुश के बने आसन पर बैठकर मंत्र जप करने से मंत्र सिद्ध हो जाते हैं। कुश धारण करने से सिर के बाल नहीं झड़ते और छाती में आघात यानी दिल का दौरा नहीं होता। उल्लेखनीय हे कि वेद ने कुश को तत्काल फल देने वाली औषधि, आयु की वृद्धि करने वाला और दुषित वातावरण को पवित्र करके संक्रमण फैलने से रोकने वाला बताया है।

कुश की पवित्री पहनना जरूरी क्यों?
कुश की अंगुठी बनाकर अनामिका उंगली मे पहनने का विधान है, ताकि हाथ में संचित आध्यात्मिक शक्ति पुंज दूसरी उंगलियों में न जाए, क्योंकि अनामिका के मूल में सूर्य का स्थान होने के कारण यह सूर्य की उंगली है। सूर्य से हमें जीवनी शक्ति, तेज और यश मिलता है। दूसरा कारण इस ऊर्जा को पृथ्वी में जाने से रोकता है। कर्मकांड के दौरान यदि भूल से हाथ जमीन पर लग जाए तो बीच में कुश का ही स्पर्श होगा। इसलिए कुश को हाथ में भी धारण किया जाता है। इसके पीछे मान्यता यह भी है कि हाथ की ऊर्जा की रक्षा न की जाए, तो इसका बुरा असर हमारे दिल और दिमाग पर पड़ता है।
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