Saturday, March 26, 2016

आचमन तीन बार करने की परंपरा क्यों बनाई गई?

धर्मग्रंथों में तीन बार आचमन करने के संबंध में कहा गया है

प्रथमं यत् पिवति तेन ऋगवेद प्रीयति।
यद् द्वितीयं तेन यजुर्वेद प्रीयति, यद् तृतीयं तेन सामवेदं प्रीयति।।

तीन बार आचमन करने से तीनों वेद यानी ऋगवेद, यजुर्वेद, सामवेद प्रसन्न होकर सारी मनोकामनाएं पूरी करते हैं। मनु महाराज के अनुसार त्रिराचमेदय: पूर्वम् यानी सबसे पहले तीन बार आचमन करना चाहिए। इससे गले व सांस की परेशानियां दूर होने के साथ ही, कफ खत्म होता है। इसलिए हर धार्मिक काम के शुरू में और संध्योपासन के बीच-बीच में अनेक बार तीन की संख्या में आचमन का विधान बताया गया है। इसके अलावा यह भी माना जाता है कि इससे कायिक, मानसिक और वाचिक तीनों प्रकार के पापों की निवृति होकर मनवांछित फल की प्राप्ति होती है।
आचमन करने के बारे में मनुस्मृति में कहा गया है कि ब्रह्मा तीर्थ यानी अंगूठे के मूल नीेचे से इसे करें या प्रजापत्य तीर्थ यानी कनिष्ठ उंगली के नीचे से या देवतीर्थ यानी उंगली के आगे वाले भाग से करें, लेकिन पितृतीर्थ यानी अंगूठा व तर्जनी के बीच मध्य से आचमन करें, क्योंकि इससे पितरों को तर्पण किया जाता है। इसलिए यह वर्जित है। आचमन करने की एक दूसरी विधि बोधायन में भी बताई गई है। जिसके अनुसार हाथ को गाया के कान की तरह आकृति देकर तीन बार जल पीने को कहा गया है।
http://religion.bhaskar.com/news/JM-JMJ-SAS-why-rinse-three-times-created-the-tradition-5106430-NOR.html

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