Thursday, March 31, 2016

पूजन के बाद सेवन करना चाहिए इस जल का


किसी भी पूजन कर्म में आरती के बाद चरणामृत दिया जाता है। चरणामृत शब्द का अर्थ है भगवान के चरणों से प्राप्त अमृत। इसे बहुत ही पवित्र माना जाता है तथा मस्तक से लगाने के बाद इसका सेवन किया जाता है। चरणामृत का सेवन अमृत के समान माना गया है। यहां जानिए चरणामृत से जुड़ी खास बातें...
गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस के अनुसार जब श्रीराम, सीता और लक्ष्मण ने अयोध्या से वनवास के प्रस्थान किया उस दौरान उनकी भेंट एक केवट से हुई। केवट ने श्रीराम, सीता और लक्ष्मण को अपनी नाव में बैठाकर गंगा नदी पार करवाई थी। उस केवट ने कहा था कि...

पद पखारि जलुपान करि आपु सहित परिवार।
पितर पारु प्रभुहि पुनि मुदित गयउ लेइ पार।।

अर्थात् भगवान श्रीराम के चरण धोकर उसे चरणामृत के रूप में स्वीकार कर केवट न केवल स्वयं भव-बाधा से पार हो गया, बल्कि उसने अपने पूर्वजों को भी तार दिया।
चरणामृत का महत्व सिर्फ धार्मिक ही नहीं, वैज्ञानिक भी है। चरणामृत का जल तांबे के पात्र में रखा जाता है। आयुर्वेद के अनुसार तांबे के बर्तन में रखे पानी का सेवन करने से अनेक रोग नष्ट हो सकते हैं। इस जल का सेवन करने से शरीर में रोगों से लड़ने की क्षमता बढ़ती है। इस जल में तुलसी के पत्ते डालने की परंपरा भी है, जिससे चरणामृत की रोगनाशक क्षमता और भी बढ़ जाती है। ऐसा माना जाता है कि चरणामृत स्मरण शक्ति को बढ़ाता है।
http://religion.bhaskar.com/news/JM-JKR-DMV-importance-of-charnamrit-4948700-NOR.html

Wednesday, March 30, 2016

पत्नी को उल्टे हाथ पर बैठाने की प्रथा क्यों है


महाभारत के शांति पर्व 235.18 के अनुसार पत्नी पति का शरीर ही है और उसके आधे भाग को अर्द्धांगिनी के रूप में वह पूरा करती है। तैतररीय ब्राह्मण 33.3.5 में इस प्रकार लिखा है अथो अर्धो वा एव अन्यत: यत् पत्नी यानी पुरुष का शरीर तब तक पूरा नहीं होता, जब तक उसे आधे अंग में उसकी अर्द्धांगिनी निवास नहीं करती। पौराणिक आख्यानों के अनुसार पुरुष का जन्म ब्रह्मा के दाहिने कंधे से व स्त्री का जन्म बाएं कंधे से हुआ है, इसलिए स्त्री को वामांगी भी कहा जाता है और विवाह के बाद स्त्री को पुरुष के वाम भाग में बैठाया जाता है।

सप्तपदी होने तक वधू को दाहिने हाथ पर बैठाया जाता है। फिर प्रतिज्ञाओं में बंधित हो जाने के बाद पत्नी बनकर आत्मीय होने के कारण उसे बाईं ओर बैठाया जाता है। इस तरह बाईं ओर जाने के बाद पत्नी गृहस्थ जीवन की प्रमुख सूत्रधार बन जाती है और अधिकार हस्तांतरण के कारण दाहिनी ओर से वह बाईं ओर आ जाती है। इस तरह की प्रक्रिया को शास्त्र में आसन परिवर्तन के नाम से जाना जाता है। हिंदू शास्त्रों में स्त्री को पुरुष का वाम अंग बताया गया है। साथ ही, वाम अंग में बैठने के अवसर भी बताए गए हैं।

वामे सिंदूरदाने च वामे वैव द्विरागमने।
वामे शयनैकश्यायां भवेज्जाया प्रियािर्थनी।।

सिंदूरदान, तीर्थ पर जाते समय, भोजन, शयन व सेवा के समय पत्नी हमेशा वाम भाग में रहे। इसके अलावा अभिषेक के समय, अशीर्वाद ग्रहण करते समय और ब्राह्मण के पांव धोते समय भी पत्नी को वाम में यानी उल्टे हाथ की तरफ रहने को कहा गया है। उल्लेखनीय है कि जो धार्मिक काम पुरुष प्रधान होते हैं, जैसे विवाह, कन्यादान, यज्ञ, जातकर्म, नामकरण, अन्नप्राशन, निष्क्रमण आदि में पत्नी पुरुष के दाईं ओर रहती है, जबकि स्त्री प्रधान कामों में वह पुरुष के वाम अंग की तरफ होती है। आप जानते ही होंगे कि मौली स्त्री के बाएं हाथ की कलाई में बांधने का नियम शास्त्रों में लिखा है। ज्योतिषी स्त्रियों के बाएं हाथ की हस्तरेखाएं देखते हैं। वैद्य स्त्रियों की बाएं हाथ की नाड़ी को छूकर इलाज करते हैं। ये सभी बातें भी स्त्री के वामांगी होने का संकेत करती हैं।
http://religion.bhaskar.com/news/JM-JMJ-SAS-why-wife-sit-in-the-left-part-of-the-practice-5110436-NOR.html

Tuesday, March 29, 2016

पूजन में अनामिका उंगली का ही उपयोग क्यों किया जाता है


हिंदू धर्मकोश के अनुसार ब्रह्मा का सिर छेदन कर देने पर भी जिसका नाम निंदित नहीं है, उसे अनामा कहते हैं। एक अन्य व्याख्या मे मान, अभिमान रहित और यश और कीर्ति की सूचक के रूप में अनामिका को वर्णित किया गया है।
अनामिका दाहिने हाथ की तीसरी उंगली को कहा गया है। यह पवित्र मानी जाती है। धार्मिक काम के समय इसी उंगली में पवित्री धारण करने का विधान है। पुराणों के अनुसार इस उंगली से शिव ने ब्रह्मा का शिरच्छेद किया था। यही कारण है कि इसे देवताओं की उंगली माना गया है।
इसलिए पूजा के समय इसका उपयोग किया जाता है यानी भगवान को कुमकुम, अक्षत आदि अर्पित करते समय मुख्य रूप से यही उंगली उपयोग में लाई जाती है। ध्यान रहे ज्योतिष में हाथ की पांचों अंगूठे सहित उंगलियों में ग्रह व पर्वत का निवास माना जाता है। इसके अनुसार अंगूठे में शुक्र, तर्जनी में गुरु, मध्यमा में शनि, अनामिका में सूर्य और कनिष्ठा में बुध पर्वत का वास माना जाता है। स्पष्ट है पूजन मे इसके उपयोग का फल सूर्य की तरह ही ऊर्जा, प्रकाश और यश देता है।

Monday, March 28, 2016

नामकरण संस्कार की परंपरा क्यों?


नामकरण संस्कार के संबंध में स्मृति संग्रह में लिखा है

आयुर्वर्चोभिवृद्धिश्च सिद्धिर्व्यवहतेस्तथा।
नामकर्मफलं त्वेतत् समुदिष्टं मनीषिभ:।।

नामकरण संस्कार से आयु व तेज की वृद्धि होती है और लौकिक व्यवहार के नाम की प्रसिद्धि से इंसान का अलग अस्तित्व बनता है। इस संस्कार को दस दिन का सूतक खत्म होने के बाद ही किया जा सकता है। पराशर मृह्यसूत्र में लिखा है- दशम्यामुत्थाप्य पिता नाम करोति। कहीं-कहीं 100 वें दिन या एक साल बीत जाने के बाद नामकरण करने की विधि प्रचलित है। गोभिल गृह्यसूत्रकार के अनुसार जननादृश्यरात्रे व्युष्टे शतरात्रे संवत्सरे वा नामधेयकरणाम्। इस संस्कार में बच्चे को शहद चटाकर कहा जाता है कि तू अच्छा और प्रिय लगने वाला बोल। इसके बाद सूर्य दर्शन करवाए जाते हैं।
साथ ही, कामना भी की जाती है कि बच्चा सूर्य के समान तेजस्वी व प्रखर हो। इसके साथ ही भूमि को नमन कर देव संस्कृति के प्रति श्रद्धापूर्वक समर्पण किया जाता है। शिशु का नया नाम लेकर सभी लोग चिरंजीवी, धार्मिक, स्वस्थ और समृद्ध होने की कामना करते हैं। पहले गुण प्रधान नाम द्वारा या महापुरुषों, भगवान आदि के नाम पर रखे नाम द्वारा यह प्रेरणा दी जाती थी कि बच्चा जीवन भर उन्हीं की तरह बनने को प्रयत्नशील रहे। मनोवैज्ञानि तथ्य यह है कि जिस तरह के नाम से इंसान को पुकारा जाता है, उसे उसी तरह के गुणो की अनुभूति होती है। जब घटिया नाम से पुकारा जाएगा, तो इंसान के मन में हीनता के ही भाव जागेंगे। इसलिए नाम की सार्थकता को समझते हुए ऐसा ही नाम रखना चाहिए, जो शिशु को प्रोत्साहित करने वाला और गौरव अनुभव कराने वाला हो।
नामकरण के तीन आधार माने गए है। पहला जिस नक्षत्र में बच्चे का जन्म होता है, उस नक्षत्र की पहचान हो। इसलिए नाम नक्षत्र के लिए नियत अक्ष्रर से शुरू होना चाहिए, ताकि नाम से जन्म नक्षत्र का पता चले और ज्योतिषीय राशिफल भी समझा जा सकें। मूलरूप से नामों की वैज्ञानिकता का यही एक दर्शन है। दूसरा यह है कि नाम आपको जीवन के उद्देश्य को प्राप्त करने में सहायक बने और तीसरा यह कि नाम से आपके जातिनाम, वंश, गोत्र आदि की जानकारी हो जाए।
http://religion.bhaskar.com/news/JM-JMJ-SAS-why-the-tradition-of-the-naming-ceremony-5107366-NOR.html

Sunday, March 27, 2016

सनातन धर्म के पवित्र सोलह संस्कार

हिन्दू धर्म भारत का सर्वप्रमुख धर्म है। इसमें पवित्र सोलह संस्कार संपन्न किए जाते हैं। हिंदू धर्म की प्राचीनता एवं विशालता के कारण ही उसे 'सनातन धर्म' भी कहा जाता है।

बौद्ध, जैन, ईसाई, इस्लाम आदि धर्मों के समान हिन्दू धर्म किसी भी व्यक्ति विशेष द्वारा स्थापित किया गया धर्म नहीं, बल्कि प्राचीन काल से चले आ रहे विभिन्न धर्मों एवं आस्थाओं का बड़ा समुच्चय है। महर्षि वेदव्यास के अनुसार मनुष्य के जन्म से लेकर मृत्यु तक पवित्र सोलह संस्कार संपन्न किए जाते हैं। जो निम्नानुसार है :-

1. गर्भाधान,    2. पुंसवन,      3. सीमंतोन्नायन,        4. जातक्रम,               5. नामकरण,       6. निष्क्रमण
7. अन्नप्राशन,    8. चूड़ाकर्म,          9. कर्णवेध,          10. यज्ञोपवीत,         11. वेदारंभ,          12. केशांत
13. समावर्तन,     14. विवाह,           15. आवसश्याधाम,           16. श्रोताधाम

 
Hindu Dharma Ke Solah (16) Sanskar : हिन्दू धर्म के सोलह (16) संस्कारशास्त्रों के अनुसार मनुष्य जीवन के लिए कुछ आवश्यक नियम बनाए गए हैं जिनका पालन करना हमारे लिए आवश्यक माना गया है। मनुष्य जीवन में हर व्यक्ति को अनिवार्य रूप से सोलह संस्कारों का पालन करना चाहिए। यह संस्कार व्यक्ति के जन्म से मृत्यु तक अलग-अलग समय पर किए जाते हैं।
प्राचीन काल से इन सोलह संस्कारों के निर्वहन की परंपरा चली आ रही है। हर संस्कार का अपना अलग महत्व है। जो व्यक्ति इन सोलह संस्कारों का निर्वहन नहीं करता है उसका जीवन अधूरा ही माना जाता है।
ये सोलह संस्कार क्या-क्या हैं
गर्भाधान संस्कार ( Garbhaadhan Sanskar)यह ऐसा संस्कार है जिससे हमें योग्य, गुणवान और आदर्श संतान प्राप्त होती है। शास्त्रों में मनचाही संतान प्राप्त के लिए गर्भधारण संस्कार किया जाता है। इसी संस्कार से वंश वृद्धि होती है।

पुंसवन संस्कार (Punsavana Sanskar)गर्भस्थ शिशु के बौद्धिक और मानसिक विकास के लिए यह संस्कार किया जाता है। पुंसवन संस्कार के प्रमुख लाभ ये है कि इससे स्वस्थ, सुंदर गुणवान संतान की प्राप्ति होती है।

सीमन्तोन्नयन संस्कार ( Simanta Sanskar)यह संस्कार गर्भ के चौथे, छठवें और आठवें महीने में किया जाता है। इस समय गर्भ में पल रहा बच्चा सीखने के काबिल हो जाता है। उसमें अच्छे गुण, स्वभाव और कर्म का ज्ञान आए, इसके लिए मां उसी प्रकार आचार-विचार, रहन-सहन और व्यवहार करती है।
जातकर्म संस्कार (Jaat-Karm Sansakar)बालक का जन्म होते ही इस संस्कार को करने से शिशु के कई प्रकार के दोष दूर होते हैं। इसके अंतर्गत शिशु को शहद और घी चटाया जाता है साथ ही वैदिक मंत्रों का उच्चारण किया जाता है ताकि बच्चा स्वस्थ और दीर्घायु हो।
नामकरण संस्कार (Naamkaran Sanskar)शिशु के जन्म के बाद 11वें दिन नामकरण संस्कार किया जाता है। ब्राह्मण द्वारा ज्योतिष शास्त्र के अनुसार बच्चे का नाम तय किया जाता है।
निष्क्रमण संस्कार (Nishkraman Sanskar)निष्क्रमण का अर्थ है बाहर निकालना। जन्म के चौथे महीने में यह संस्कार किया जाता है। हमारा शरीर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश जिन्हें पंचभूत कहा जाता है, से बना है। इसलिए पिता इन देवताओं से बच्चे के कल्याण की प्रार्थना करते हैं। साथ ही कामना करते हैं कि शिशु दीर्घायु रहे और स्वस्थ रहे।
अन्नप्राशन संस्कार ( Annaprashana)यह संस्कार बच्चे के दांत निकलने के समय अर्थात 6-7 महीने की उम्र में किया जाता है। इस संस्कार के बाद बच्चे को अन्न खिलाने की शुरुआत हो जाती है।
मुंडन संस्कार ( Mundan Sanskar)जब शिशु की आयु एक वर्ष हो जाती है तब या तीन वर्ष की आयु में या पांचवे या सातवे वर्ष की आयु में बच्चे के बाल उतारे जाते हैं जिसे मुंडन संस्कार कहा जाता है। इस संस्कार से बच्चे का सिर मजबूत होता है तथा बुद्धि तेज होती है। साथ ही शिशु के बालों में चिपके कीटाणु नष्ट होते हैं जिससे शिशु को स्वास्थ्य लाभ प्राप्त होता है।
विद्या आरंभ संस्कार ( Vidhya Arambha Sanskar )इस संस्कार के माध्यम से शिशु को उचित शिक्षा दी जाती है। शिशु को शिक्षा के प्रारंभिक स्तर से परिचित कराया जाता है।
कर्णवेध संस्कार ( Karnavedh Sanskar)इस संस्कार में कान छेदे जाते है । इसके दो कारण हैं, एक- आभूषण पहनने के लिए। दूसरा- कान छेदने से एक्यूपंक्चर होता है। इससे मस्तिष्क तक जाने वाली नसों में रक्त का प्रवाह ठीक होता है। इससे श्रवण शक्ति बढ़ती है और कई रोगों की रोकथाम हो जाती है।
उपनयन या यज्ञोपवित संस्कार (Yagyopaveet Sanskar)उप यानी पास और नयन यानी ले जाना। गुरु के पास ले जाने का अर्थ है उपनयन संस्कार। आज भी यह परंपरा है। जनेऊ यानि यज्ञोपवित में तीन सूत्र होते हैं। ये तीन देवता- ब्रह्मा, विष्णु, महेश के प्रतीक हैं। इस संस्कार से शिशु को बल, ऊर्जा और तेज प्राप्त होता है।
वेदारंभ संस्कार (Vedaramba Sanskar)इसके अंतर्गत व्यक्ति को वेदों का ज्ञान दिया जाता है।
केशांत संस्कार (Keshant Sanskar)केशांत संस्कार अर्थ है केश यानी बालों का अंत करना, उन्हें समाप्त करना। विद्या अध्ययन से पूर्व भी केशांत किया जाता है। मान्यता है गर्भ से बाहर आने के बाद बालक के सिर पर माता-पिता के दिए बाल ही रहते हैं। इन्हें काटने से शुद्धि होती है। शिक्षा प्राप्ति के पहले शुद्धि जरूरी है, ताकि मस्तिष्क ठीक दिशा में काम करें। पुराने में गुरुकुल से शिक्षा प्राप्ति के बाद केशांत संस्कार किया जाता था।
समावर्तन संस्कार (Samavartan Sanskar)- समावर्तन संस्कार अर्थ है फिर से लौटना। आश्रम या गुरुकुल से शिक्षा प्राप्ति के बाद व्यक्ति को फिर से समाज में लाने के लिए यह संस्कार किया जाता था। इसका आशय है ब्रह्मचारी व्यक्ति को मनोवैज्ञानिक रूप से जीवन के संघर्षों के लिए तैयार किया जाना।
विवाह संस्कार ( Vivah Sanskar)यह धर्म का साधन है। विवाह संस्कार सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार माना जाता है। इसके अंतर्गत वर और वधू दोनों साथ रहकर धर्म के पालन का संकल्प लेते हुए विवाह करते हैं। विवाह के द्वारा सृष्टि के विकास में योगदान दिया जाता है। इसी संस्कार से व्यक्ति पितृऋण से मुक्त होता है।
अंत्येष्टी संस्कार (Antyesti Sanskar)अंत्येष्टि संस्कार इसका अर्थ है अंतिम संस्कार। शास्त्रों के अनुसार इंसान की मृत्यु यानि देह त्याग के बाद मृत शरीर अग्नि को समर्पित किया जाता है। आज भी शवयात्रा के आगे घर से अग्नि जलाकर ले जाई जाती है। इसी से चिता जलाई जाती है। आशय है विवाह के बाद व्यक्ति ने जो अग्नि घर में जलाई थी उसी से उसके अंतिम यज्ञ की अग्नि जलाई जाती है।

Saturday, March 26, 2016

आचमन तीन बार करने की परंपरा क्यों बनाई गई?

धर्मग्रंथों में तीन बार आचमन करने के संबंध में कहा गया है

प्रथमं यत् पिवति तेन ऋगवेद प्रीयति।
यद् द्वितीयं तेन यजुर्वेद प्रीयति, यद् तृतीयं तेन सामवेदं प्रीयति।।

तीन बार आचमन करने से तीनों वेद यानी ऋगवेद, यजुर्वेद, सामवेद प्रसन्न होकर सारी मनोकामनाएं पूरी करते हैं। मनु महाराज के अनुसार त्रिराचमेदय: पूर्वम् यानी सबसे पहले तीन बार आचमन करना चाहिए। इससे गले व सांस की परेशानियां दूर होने के साथ ही, कफ खत्म होता है। इसलिए हर धार्मिक काम के शुरू में और संध्योपासन के बीच-बीच में अनेक बार तीन की संख्या में आचमन का विधान बताया गया है। इसके अलावा यह भी माना जाता है कि इससे कायिक, मानसिक और वाचिक तीनों प्रकार के पापों की निवृति होकर मनवांछित फल की प्राप्ति होती है।
आचमन करने के बारे में मनुस्मृति में कहा गया है कि ब्रह्मा तीर्थ यानी अंगूठे के मूल नीेचे से इसे करें या प्रजापत्य तीर्थ यानी कनिष्ठ उंगली के नीचे से या देवतीर्थ यानी उंगली के आगे वाले भाग से करें, लेकिन पितृतीर्थ यानी अंगूठा व तर्जनी के बीच मध्य से आचमन करें, क्योंकि इससे पितरों को तर्पण किया जाता है। इसलिए यह वर्जित है। आचमन करने की एक दूसरी विधि बोधायन में भी बताई गई है। जिसके अनुसार हाथ को गाया के कान की तरह आकृति देकर तीन बार जल पीने को कहा गया है।
http://religion.bhaskar.com/news/JM-JMJ-SAS-why-rinse-three-times-created-the-tradition-5106430-NOR.html

Friday, March 25, 2016

शुभ काम की शुरुआत में स्वस्तिक क्यों बनाया जाता है?

स्वस्तिक शब्द सु+अस+क से बना है। 'सु' का अर्थ अच्छा, 'अस' का अर्थ 'सत्ता' या 'अस्तित्व' और 'क' का अर्थ 'कर्त्ता' या करने वाले से है। इस प्रकार 'स्वस्तिक' शब्द का अर्थ हुआ 'अच्छा' या 'मंगल' करने वाला। 'अमरकोश' में भी 'स्वस्तिक' का अर्थ आशीर्वाद, मंगल या पुण्यकाम करना लिखा है। अमरकोश के शब्द हैं - 'स्वस्तिक, सर्वतोऋद्ध' यानी 'सभी दिशाओं में सबका कल्याण हो।' इस प्रकार 'स्वस्तिक' शब्द में किसी व्यक्ति या जाति विशेष का नहीं, बल्कि सम्पूर्ण विश्व के कल्याण या 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावना निहित है।
लोग पूजा स्थान में या किसी शुभ अवसर पर स्वास्तिक का चिन्ह बनाते हैं। इसके पीछे मान्यता है कि स्वास्तिक चिन्ह शुभ और लाभ में बढ़ोतरी करने वाला होता है। वास्तुशास्त्र के अनुसार स्वास्तिक का संबंध असल में वास्तु से है। इसकी बनावट ऐसी होती है कि यह हर दिशा में एक जैसा दिखता है। अपनी बनावट की इसी खूबी के कारण यह घर में मौजूद हर प्रकार के वास्तुदोष को कम करने में सहायक होता है।शास्त्रों में स्वास्तिक को विष्णु का आसन व लक्ष्मी का स्वरुप माना गया है। इसके अलावा कुछ लोग इसे गणेशजी का स्वरूप भी मानते है। कुमकुम या सिंदूर से बना स्वास्तिक ग्रह दोषों को दूर करने वाला होता है। साथ् ही, यह धन कारक योग बनाता है। वास्तुशास्त्र के अनुसार अष्टधातु का स्वास्तिक मुख्य द्वार के पूर्व दिशा में रखने से सुख व धन में बढ़ोतरी होती है।

Wednesday, March 23, 2016

क्यों पहने जाते हैं सोने के कंगन?


खनखन करती चूड़ियां किसी भी महिला की खूबसूरती को और ज्यादा बड़ा देती हैं।चूड़ियां और कंगन नारी श्रंगार का एक अभिन्न हिस्सा है। महिलाएं तरह-तरह की चूड़ियाें की शौकिन होती हैं। लाख, कांच से लेकर सोने-चांदी और हीरे जड़े कंगन तक। कभी गौर किया है आखिर ये चूड़ियां पहनी क्यों जाती हैं। क्या ये श्रंगार का ही एक हिस्सा हैं या फिर कुछ और कारण भी है? दरअसल, पुरातन काल से नारी श्रंगार में आभूषण प्रमुख थे। सभी आभूषण सोने या चांदी के होते थे। सोने या चांदी के भारी कंगन और कड़े पहने जाने का रिवाज था। इसके पीछे मूल कारण था महिलाओं का कमजोर होना।
चिकित्सकीय दृष्टि से देखें तो महिलाओं को बढ़ती उम्र के साथ हड्डियां कमजोर होने के अलावा कई बीमारियां घेरने लग जाती हैं। सोने और चांदी के कड़े हड्डियों को मजबूत करते थे और लगातार घर्षण से इन धातुओं के गुण भी शरीर को मिलते थे, जिससे महिलाओं को आरोग्य मिलता था। अधिक उम्र में भी वे स्वस्थ्य रहती थीं। इसके पीछे एक और कारण यह भी था। वह यह कि सभी की जिंदगी में उतार -चढ़ाव आते हैं। उस बुरे समय ये गहने आर्थिक सहारा भी देते हैं इसलिए हमारे यहां सोने के कंगन पहनने की परंपरा बनाई गई है।
http://religion.bhaskar.com/news/JM-JMJ-SAS-why-are-worn-gold-bracelets-5210506-NOR.html

Tuesday, March 22, 2016

हजारों वर्षों से जीवित है सात महामानव

श्लोक : 'अश्वत्थामा बलिर्व्यासो हनुमांश्च विभीषणः। कृपः परशुरामश्च सप्तैते चिरंजीविनः॥'
अर्थात् : अश्वत्थामा, बलि, व्यास, हनुमान, विभीषण, कृपाचार्य और भगवान परशुराम ये सभी चिरंजीवी हैं।

यह दुनिया का एक आश्चर्य है। विज्ञान इसे नहीं मानेगा, योग और आयुर्वेद कुछ हद तक इससे सहमत हो सकता है, लेकिन जहाँ हजारों वर्षों की बात हो तो फिर योगाचार्यों के लिए भी शोध का विषय होगा। इसका दावा नहीं किया जा सकता और इसके किसी भी प्रकार के सबूत नहीं है। यह आलौकिक है। किसी भी प्रकार के चमत्कार से इन्कार ‍नहीं किया जा सकता। सिर्फ शरीर बदल-बदलकर ही हजारों वर्षों तक जीवित रहा जा सकता है। यह संसार के सात आश्चर्यों की तरह है।
हिंदू इतिहास और पुराण अनुसार ऐसे सात व्यक्ति हैं, जो चिरंजीवी हैं। यह सब किसी न किसी वचन, नियम या शाप से बंधे हुए हैं और यह सभी दिव्य शक्तियों से संपन्न है। योग में जिन अष्ट सिद्धियों की बात कही गई है वे सारी शक्तियाँ इनमें विद्यमान है। यह परामनोविज्ञान जैसा है, जो परामनोविज्ञान और टेलीपैथी विद्या जैसी आज के आधुनिक साइंस की विद्या को जानते हैं वही इस पर विश्वास कर सकते हैं। आओ जानते हैं कि हिंदू धर्म अनुसार कौन से हैं यह सात जीवित महामानव।
1.
बलि : राजा बलि के दान के चर्चे दूर-दूर तक थे। देवताओं पर चढ़ाई करने राजा बलि ने इंद्रलोक पर अधिकार कर लिया था। बलि सतयुग में भगवान वामन अवतार के समय हुए थे। राजा बलि के घमंड को चूर करने के लिए भगवान ने ब्राह्मण का भेष धारण कर राजा बलि से तीन पग धरती दान में माँगी थी। राजा बलि ने कहा कि जहाँ आपकी इच्छा हो तीन पैर रख दो। तब भगवान ने अपना विराट रूप धारण कर दो पगों में तीनों लोक नाप दिए और तीसरा पग बलि के सर पर रखकर उसे पाताल लोक भेज दिया।

2. परशुराम : परशुराम राम के काल के पूर्व महान ऋषि रहे हैं। उनके पिता का नाम जमदग्नि और माता का नाम रेणुका है। पति परायणा माता रेणुका ने पाँच पुत्रों को जन्म दिया, जिनके नाम क्रमशः वसुमान, वसुषेण, वसु, विश्वावसु तथा राम रखे गए। राम की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें फरसा दिया था इसीलिए उनका नाम परशुराम हो गया।गवान पराशुराम राम के पूर्व हुए थे, लेकिन वे चिरंजीवी होने के कारण राम के काल में भी थे। भगवान परशुराम विष्णु के छठवें अवतार हैं। इनका प्रादुर्भाव वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को हुआ, इसलिए उक्त तिथि अक्षय तृतीया कहलाती है। इनका जन्म समय सतयुग और त्रेता का संधिकाल माना जाता है।

3. हनुमान : अंजनी पुत्र हनुमान को भी अजर अमर रहने का वरदान मिला हुआ है। यह राम के काल में राम भगवान के परम भक्त रहे हैं। हजारों वर्षों बाद वे महाभारत काल में भी नजर आते हैं। महाभारत में प्रसंग हैं कि भीम उनकी पूँछ को मार्ग से हटाने के लिए कहते हैं तो हनुमानजी कहते हैं कि तुम ही हटा लो, लेकिन भीम अपनी पूरी ताकत लगाकर भी उनकी पूँछ नहीं हटा पाता है।

4. विभिषण : रावण के छोटे भाई विभिषण। जिन्होंने राम की नाम की महिमा जपकर अपने भाई के विरु‍द्ध लड़ाई में उनका साथ दिया और जीवन भर राम नाम जपते रहें।

5. ऋषि व्यास : महाभारतकार व्यास ऋषि पराशर एवं सत्यवती के पुत्र थे, ये साँवले रंग के थे तथा यमुना के बीच स्थित एक द्वीप में उत्पन्न हुए थे। अतएव ये साँवले रंग के कारण 'कृष्ण' तथा जन्मस्थान के कारण 'द्वैपायन' कहलाए। इनकी माता ने बाद में शान्तनु से विवाह किया, जिनसे उनके दो पुत्र हुए, जिनमें बड़ा चित्रांगद युद्ध में मारा गया और छोटा विचित्रवीर्य संतानहीन मर गया।

कृष्ण द्वैपायन ने धार्मिक तथा वैराग्य का जीवन पसंद किया, किन्तु माता के आग्रह पर इन्होंने विचित्रवीर्य की दोनों सन्तानहीन रानियों द्वारा नियोग के नियम से दो पुत्र उत्पन्न किए जो धृतराष्ट्र तथा पाण्डु कहलाए, इनमें तीसरे विदुर भी थे। व्यासस्मृति के नाम से इनके द्वारा प्रणीत एक स्मृतिग्रन्थ भी है। भारतीय वांड्मय एवं हिन्दू-संस्कृति व्यासजी की ऋणी है।

6. अश्वत्थामा : अश्वथामा गुरु द्रोणाचार्य के पुत्र हैं। अश्वस्थामा के माथे पर अमरमणि है और इसीलिए वह अमर हैं, लेकिन अर्जुन ने वह अमरमणि निकाल ली थी। ब्रह्मास्त्र चलाने के कारण कृष्ण ने उन्हें शाप दिया था कि कल्पांत तक तुम इस धरती पर जीवित रहोगे, इसीलिए अश्वत्थामा सात चिरन्जीवियों में गिने जाते हैं। माना जाता है कि वे आज भी जीवित हैं तथा अपने कर्म के कारण भटक रहे हैं। हरियाणा के कुरुक्षेत्र एवं अन्य तीर्थों में यदा-कदा उनके दिखाई देने के दावे किए जाते रहे हैं। मध्यप्रदेश के बुरहानपुर के किले में उनके दिखाई दिए जाने की घटना भी प्रचलित है।

7. कृपाचार्य : शरद्वान् गौतम के एक प्रसिद्ध पुत्र हुए हैं कृपाचार्य। कृपाचार्य अश्वथामा के मामा और कौरवों के कुलगुरु थे। शिकार खेलते हुए शांतनु को दो शिशु प्राप्त हुए। उन दोनों का नाम कृपी और कृप रखकर शांतनु ने उनका लालन-पालन किया। महाभारत युद्ध में कृपाचार्य कौरवों की ओर से सक्रिय थे