महाभारत को
पांचवा वेद कहा जाता है। महाभारत के कई ऐसे किस्से हो, जिनसे आज भी
लोग आनजान है। इस स्टोरी में हम आपको महाभारत के 5 ऐसी ही अनजानी बातों के बारे में बताएंगे।
परशुराम का श्राप
बना था, कर्ण की मृत्यु का कारण
कुंती पुत्र कर्ण
पराक्रमी योद्धा था, लेकिन उसने युद्ध कला झूठ बोल कर प्राप्त की थी। जिसका
परिणाम उसे युद्ध में अपनी मौत के रुप में भोगना पड़ा। जन्म के समय ही अपनी माता
कुंती ने कर्ण को त्याग दिया था, जिसे एक सूत ने अपने पुत्र के रूप में अपनाया। इसी वजह से कर्ण
सूतपुत्र के रूप में जाना जाता था। कर्ण परशुराम से शिक्षा लेना चाहता था, लेकिन परशुराम
केवल ब्राह्मणों को ही शिक्षा देते थे। यह बात जानकर कर्ण ने परशुराम से अपने
ब्राह्मण होने का झूठ बोला और उनसे कई दिव्य अस्त्रों-शस्त्रों का ज्ञान लिया। साथ
ही ब्रह्मास्त्र की भी शिक्षा प्रप्त की। जब परशुराम को कर्ण के सूतपुत्र होने का
सच पता चला तो वह बहुत क्रोधित हुए। परशुराम ने कर्ण को श्राप दिया कि जब युद्ध
में सबसे महत्वपूर्ण समय आएगा तब वह अपना सारा ज्ञान भूल जाएगा और कोई भी अस्त्र
या शस्त्र नहीं चला पाएगा। कुरुक्षेत्र के युद्ध में यही श्राप कर्ण की मृत्यु का
भी कारण बना।
कर्ण पहले ही जानता था, देवराज इन्द्र के कवच और कुण्डल दान मांगने की बात
महाभारत
के वनपर्व के अनुसार, पांडवों
के वनवास के बारह वर्ष पूरे हो गए थे और अज्ञातवास की शुरुआत हो गई थी। देवराज
इन्द्र पांडवों का लाभ चाहते थे। इसलिए वे कर्ण से उसके कवच और कुण्डल दान में
मांगने वाले थे। यह बात कर्ण के पिता भगवान सूर्य जान चुके थे। अपने पुत्र की भलाई
के लिए वे कर्ण को इस बात से सावधान करना चाहते थे। कर्ण ब्राह्मणों की सेवा करके
सो रहा था। तब भगवान सूर्य ब्राह्मण रूप धारण करके कर्ण के सपने में गए। उन्होंने
सपने में इन्द्र द्वारा कवच और कुण्डल दान में मांगे जाने की बात उसे बता दी थी।
वे जानते थे कर्ण दानवीर है। वह मांगा हुआ कोई भी दान जरूर देता है। इसलिए
उन्होंने इन्द्र से कवच और कुण्डल के बदले एक अमोघ शक्ति मांगने को कहा था। अपने
पिता के कहने पर कर्ण ने ऐसा ही किया। युद्ध में उसने इन्द्र से मांगी हुई शक्ति
से घटोत्कछ का वध किया था।
भगवान राम के बाण से तेजहीन हो गए थे
परशुराम
महाभारत
के वनपर्व के अनुसार, रावण का
वध करने के लिए स्वयं भगवान विष्णु ने श्रीराम के रूप में जन्म लिया था। जब
श्रीराम के प्रभाव और शक्तियों के बारे में भगवान परशुराम ने सुना, तो वह उनकी परीक्षा लेने के लिए अयोध्या गए। वहां उन्होंने
श्रीराम को अपने दिव्य धनुष पर प्रत्यंचा चड़ाने को कहा। पल-भर में श्रीराम ने यह
काम कर दिखाया। यह देख अहंकार से भरे परशुराम ने श्रीराम को उस धनुष से बाण चला कर
दिखाने को कहा। परशुराम के अहंकार को तोड़ने के लिए श्रीराम ने उस धनुष से ऐसा बाण
चलाया, जो परशुराम की शक्तियों को छीन कर पुनः उनके पास आ गया। यह
देख कर परशुराम समझ गए कि ये भगवान विष्णु के ही अवतार हैं। एक वर्ष तक तेजहीन
रहने पर भगवान परशुराम का सारा घमंड चूर-चूर हो गया। अपने पितरों के कहने पर
वसुधरा नाम की नदी में स्नान करने पर उन्हें फिर से उनकी शक्तियां मिल गई।
श्रीकृष्ण ने दिए थे धृतराष्ट्र को
दिव्य नेत्र
महाभारत
के उघोगपर्व के अनुसार, एक बार
धृतराष्ट्र अपने सभी पुत्रों और प्रजा के साथ महल में बैठे हुए थे। तभी वहां
श्रीकृष्ण आ गए। श्रीकृष्ण पांडवों की ओर से युद्ध ना करने और संधि कर लेने का
सुझाव लेकर आए थे। उन्होंने दुर्योधन को युद्ध रोक कर पांडवों से मित्रता करने को
कहा। दुर्योधन ने इस बात को स्वीकार नहीं किया और श्रीकृष्ण को कैद करने का प्रयास
करने लगा। दुर्योधन के इस अपमान से क्रोधित होकर श्रीकृष्ण ने सभा में अपना
विश्वरूप दिखाया। उस रूप में पूरा विश्व समाया हुआ था। जिसके तेज से सभी ने अपनी
आंखें बंद कर ली। तब धृतराष्ट्र ने श्रीकृष्ण से उसे दिव्य नेत्र देने की
प्रार्थना की, ताकि वह उनके विश्वरूप के दर्शन
कर सके। प्रार्थना के फलस्वरूप भगवान ने उसे कुछ पल के लिए दिव्य नेत्र दिए थे।
जिससे धृतराष्ट्र ने श्रीकृष्ण के दर्शन किए।
देवी ने दिया था अर्जुन को युद्ध में
जीतने का वरदान
महाभारत
के भीष्मपर्व के अनुसार, कुरूक्षेत्र
का युद्ध शुरू होने वाला था। कौरवों और पांडवों के योद्धाओं ने अपने-अपने
चक्रव्यूह का निर्माण कर लिया था। श्रीकृष्ण अर्जुन के सारथी बनकर, उसका मार्गदर्शन कर रहे थे। युद्ध आरंभ होने से पहले
श्रीकृष्ण ने अर्जुन से शत्रुओं को पराजित करने के लिए पवित्र होकर देवी दुर्गा की
स्तुति करने को कहा। श्रीकृष्ण के कहने पर अर्जुन ने अपने रथ से उतर कर देवी
दुर्गा से युद्ध में सफल होने के लिए प्रार्थना की। अर्जुन की प्रार्थना से खुश
होकर देवी ने उसे युद्ध भूमि में दर्शन दिए। देवी ने अर्जुन को नर और श्रीकृष्ण को
नारायण का रूप बताया और युद्ध प्रारंभ होने पर कुछ दिनों में ही शत्रु सेना को हरा
कर, युद्ध में जीतने का वरदान दिया था।
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