१. व्याख्या
ल : लक्ष्यभेदी विचारसे स्वकर्तव्यको गंभीरतासे पूर्ण करनेवाला
क : कल्पवृक्षकी भांति अपनी संतानको आधार देकर कर्तृत्ववान बनानेवाला
२. विशेषताएं
४ अ. संस्कारकी अपेक्षा चाकरीको अधिक
महत्त्व देनेवाले अभिभावक
आजकल अभिभावक कहते हैं, `हमें चाकरी (नौकरी) करनेके पश्चात समय ही नहीं मिलता, ऐसेमें हम बच्चोंपर ध्यान कैसे देंगे ?’ हम स्वयं ही अपनी आवश्यकताएं बढा लेते हैं ।
उसके पश्चात अधिक धनकी आवश्यकता पड जाती है । इस कारण घरमें माता-पिता दोनों ही
चाकरी करने लगते हैं ।
४ अ १. बच्चोंको शिशुग्रह (क्रेश) में रखना
आज अधिकांश अभिभावक चाकरीके लिए बाहर जाते हुए अपने बच्चोंको शिशुग्रहमें रखते हैं । इस कारण बच्चोंको माता-पिताका सान्निध्य अत्यल्प मिलता है ।
४ अ २. बच्चोंको अभ्यासवर्गमें रखना
कुछ अभिभावक धनके बलपर बच्चोंके लिए अभ्यासवर्ग जैसे माध्यमोंका उपयोग कर बच्चोंके प्रति अनदेखी करते हैं । धनके बलपर बच्चोंमें सद्गुण नहीं संस्कारित किए जा सकते ।
४ अ २ अ. अभ्यासवर्गमें भेजनेके दुष्परिणाम
संतानमें माता-पिताके प्रति प्रेम न होना : अभ्यासवर्गद्वारा बच्चोंको अच्छे अंक तो मिल सकते हैं; परंतु उनपर संस्कार नहीं किए जा सकते तथा उनकी भावनिक भूख भी नहीं मिटाई जा सकती । इसी कारण बालकोंको माता-पिताके प्रति प्रेम नहीं लगता, देश तथा धर्मके विषयमें प्रेम लगना तो दूर ही रहा !
४ आ. अपनी संतानको समय न दे पानेवाले अभिभावक
कुछ अभिभावक आवश्यकताओंकी पूर्तिके लिए, तो कुछ केवल समय बितानेके लिए चाकरी करते हुए दिखाई देते हैं । आजकलके कुछ अभिभावक तो पार्टीमें, तो कुछ मनोरंजनके अन्य साधनोंमें ही रमे होते हैं । बालकोंकी बातें सुननेके लिए उनके साथ कोई नहीं होता । बालकोंको प्रेम और माता-पिताकी आवश्यकता रहती है ।
४ आ १. अपनी संतानको समय न देनेके दुष्परिणाम
४ आ १ अ. मानसिक दृष्टिसे दुर्बल बनना
आज बालकोंकी समस्या सुननेके लिए न तो अभिभावकोंके पास समय है, न शिक्षकोंके पास । ऐसेमें बच्चोंकी कौन सुनेगा ? कभी समयके अभाववश, तो कभी-कभी उसके ज्ञानके अभावमें बालकोंको अभिभावकोंका सान्निध्य नहीं मिलता । उसकी यह मानसिक व्यथा उसका मन दुर्बल बनाती है । इस कारण बालक चिडचिडा हो जाता है, मानसिक दृष्टिसे त्रस्त होता है तथा पढाईमें पीछे पड जाता है । ऐसेमें अभिभावक उसे अभ्यासवर्गमें भेजनेका पर्याय ढूंढते हैं ।
४ आ १ आ. राष्ट्रको सक्षम पीढी न मिलना
बच्चे मानसिक दृष्टिसे दुर्बल बननेके कारण राष्ट्रको सक्षम पीढी नहीं मिलती ।
४ इ. अभिभावकोंका शिक्षाके प्रति दृष्टिकोण सदोष होना
४ इ १. संस्कारकी अपेक्षा परीक्षामें मिलनेवाले अंक महत्त्वपूर्ण लगना
आजकलके अभिभावकोंकी दृष्टिसे शिक्षाका महत्त्व बालकोंको मिलनेवाले अंकोंतक सीमित रह गया है । शिक्षाके कारण बालकोंके आचरणमें होनेवाले परिवर्तन तथा उनपर होनेवाले अच्छे संस्कारकी अपेक्षा बच्चोंको मिलनेवाले अंक ही उनकी दृष्टिसे महत्त्वपूर्ण होते हैं । उनका यह दृष्टिकोण ही दोषपूर्ण है, जो परिवर्तित होना चाहिए । `शिक्षा, अर्थात सुसंस्कारका संवर्धन तथा विकास ।’ `शिक्षा, अर्थात मनुष्यकी भांति जीना सीखना ।’ यह दृष्टिकोण ही आज अभिभावक भूल गए हैं । `मेरा बालक चिकित्सक (डॉक्टर) अथवा अभियंता बने । वह बहुत धन कमाए’, यही उनकी इच्छा होती है । `मेरा बेटा प्रथम मनुष्यकी भांति जीना सीखे, उसपर उचित संस्कार हों, ऐसा अभिभावक नहीं सोचते । इस कारण जैसे बालकोंको परीक्षामें मिलनेवाले गुणोंका समालोचन किया जाता है, वैसा समालोचन बालकोंके गुणोंका नहीं किया जाता । फलतः बालकोंको परीक्षामें मिले अंक ही महत्त्वपूर्ण लगते हैं ।
https://www.hindujagruti.org/hinduism-for-kids-hindi/35.html
पा+ल+क
पा : पवित्रताका स्वपालन कर स्वयंपर आधारित घटकोंका
पालन करानेवालाल : लक्ष्यभेदी विचारसे स्वकर्तव्यको गंभीरतासे पूर्ण करनेवाला
क : कल्पवृक्षकी भांति अपनी संतानको आधार देकर कर्तृत्ववान बनानेवाला
२. विशेषताएं
अ. अभिभावक ही बालकके जीवनका प्रथम मित्र
आ. अभिभावक, अर्थात संतानके जीवनके प्रत्येक सुख-दु:खका एकमात्र मूल घटक (संत ज्ञानेश्वरके माता-पिता, जीजामाता)
३. पूर्वकाल के आदर्श अभिभावकआ. अभिभावक, अर्थात संतानके जीवनके प्रत्येक सुख-दु:खका एकमात्र मूल घटक (संत ज्ञानेश्वरके माता-पिता, जीजामाता)
स्त्रियोंको जीजाबाईकी भांति अपने बच्चोंका पालन-पोषण करना चाहिए ! : स्त्रियोंको जीजाबाईकी भांति बालकोंपर संस्कार करने चाहिए, तभी बच्चे सुसंस्कारित होंगे । राष्ट्र एवं धर्मकी घुट्टी पिलाकर जैसे
जीजामाताने
शिवाजीको घडा, वैसे सभी स्त्रियोंको अपने बालकोंपर ध्यान एवं
समय देकर उन्हें संस्कारित करना चाहिए ।
४. आजकल के अभिभावक
कालके अनुसार अभिभावकोंमें हुए परिवर्तन
१. वैचारिक
२. बौद्धिक
३. सामाजिक
१. वैचारिक
२. बौद्धिक
३. सामाजिक
४ अ. संस्कारकी अपेक्षा चाकरीको अधिक
महत्त्व देनेवाले अभिभावक
आजकल अभिभावक कहते हैं, `हमें चाकरी (नौकरी) करनेके पश्चात समय ही नहीं मिलता, ऐसेमें हम बच्चोंपर ध्यान कैसे देंगे ?’ हम स्वयं ही अपनी आवश्यकताएं बढा लेते हैं ।
उसके पश्चात अधिक धनकी आवश्यकता पड जाती है । इस कारण घरमें माता-पिता दोनों ही
चाकरी करने लगते हैं ।४ अ १. बच्चोंको शिशुग्रह (क्रेश) में रखना
आज अधिकांश अभिभावक चाकरीके लिए बाहर जाते हुए अपने बच्चोंको शिशुग्रहमें रखते हैं । इस कारण बच्चोंको माता-पिताका सान्निध्य अत्यल्प मिलता है ।
४ अ २. बच्चोंको अभ्यासवर्गमें रखना
कुछ अभिभावक धनके बलपर बच्चोंके लिए अभ्यासवर्ग जैसे माध्यमोंका उपयोग कर बच्चोंके प्रति अनदेखी करते हैं । धनके बलपर बच्चोंमें सद्गुण नहीं संस्कारित किए जा सकते ।
४ अ २ अ. अभ्यासवर्गमें भेजनेके दुष्परिणाम
संतानमें माता-पिताके प्रति प्रेम न होना : अभ्यासवर्गद्वारा बच्चोंको अच्छे अंक तो मिल सकते हैं; परंतु उनपर संस्कार नहीं किए जा सकते तथा उनकी भावनिक भूख भी नहीं मिटाई जा सकती । इसी कारण बालकोंको माता-पिताके प्रति प्रेम नहीं लगता, देश तथा धर्मके विषयमें प्रेम लगना तो दूर ही रहा !
४ आ. अपनी संतानको समय न दे पानेवाले अभिभावक
कुछ अभिभावक आवश्यकताओंकी पूर्तिके लिए, तो कुछ केवल समय बितानेके लिए चाकरी करते हुए दिखाई देते हैं । आजकलके कुछ अभिभावक तो पार्टीमें, तो कुछ मनोरंजनके अन्य साधनोंमें ही रमे होते हैं । बालकोंकी बातें सुननेके लिए उनके साथ कोई नहीं होता । बालकोंको प्रेम और माता-पिताकी आवश्यकता रहती है ।
४ आ १. अपनी संतानको समय न देनेके दुष्परिणाम
४ आ १ अ. मानसिक दृष्टिसे दुर्बल बनना
आज बालकोंकी समस्या सुननेके लिए न तो अभिभावकोंके पास समय है, न शिक्षकोंके पास । ऐसेमें बच्चोंकी कौन सुनेगा ? कभी समयके अभाववश, तो कभी-कभी उसके ज्ञानके अभावमें बालकोंको अभिभावकोंका सान्निध्य नहीं मिलता । उसकी यह मानसिक व्यथा उसका मन दुर्बल बनाती है । इस कारण बालक चिडचिडा हो जाता है, मानसिक दृष्टिसे त्रस्त होता है तथा पढाईमें पीछे पड जाता है । ऐसेमें अभिभावक उसे अभ्यासवर्गमें भेजनेका पर्याय ढूंढते हैं ।
४ आ १ आ. राष्ट्रको सक्षम पीढी न मिलना
बच्चे मानसिक दृष्टिसे दुर्बल बननेके कारण राष्ट्रको सक्षम पीढी नहीं मिलती ।
४ इ. अभिभावकोंका शिक्षाके प्रति दृष्टिकोण सदोष होना
४ इ १. संस्कारकी अपेक्षा परीक्षामें मिलनेवाले अंक महत्त्वपूर्ण लगना
आजकलके अभिभावकोंकी दृष्टिसे शिक्षाका महत्त्व बालकोंको मिलनेवाले अंकोंतक सीमित रह गया है । शिक्षाके कारण बालकोंके आचरणमें होनेवाले परिवर्तन तथा उनपर होनेवाले अच्छे संस्कारकी अपेक्षा बच्चोंको मिलनेवाले अंक ही उनकी दृष्टिसे महत्त्वपूर्ण होते हैं । उनका यह दृष्टिकोण ही दोषपूर्ण है, जो परिवर्तित होना चाहिए । `शिक्षा, अर्थात सुसंस्कारका संवर्धन तथा विकास ।’ `शिक्षा, अर्थात मनुष्यकी भांति जीना सीखना ।’ यह दृष्टिकोण ही आज अभिभावक भूल गए हैं । `मेरा बालक चिकित्सक (डॉक्टर) अथवा अभियंता बने । वह बहुत धन कमाए’, यही उनकी इच्छा होती है । `मेरा बेटा प्रथम मनुष्यकी भांति जीना सीखे, उसपर उचित संस्कार हों, ऐसा अभिभावक नहीं सोचते । इस कारण जैसे बालकोंको परीक्षामें मिलनेवाले गुणोंका समालोचन किया जाता है, वैसा समालोचन बालकोंके गुणोंका नहीं किया जाता । फलतः बालकोंको परीक्षामें मिले अंक ही महत्त्वपूर्ण लगते हैं ।
४ ई. अधिक अंक,
अंकोंकी स्पर्धा, धन, कैरियर यही जीवनविषयक तत्त्वज्ञान होना
भारतपर राज्य करनेवाले अंग्रेजोंने राष्ट्राभिमानी एवं धर्माभिमानी नागरिकोंका निर्माण करनेवाली उज्ज्वल `गुरुकुल शिक्षणपद्धति’ नष्ट कर दी । तबसे धर्माभिमानी हिंदुका निर्माण करनेवाला मुख्य स्रोत ही मिट गया । स्वातंत्र्योत्तरकालमें भारतमें अंग्रेजी शिक्षाका प्रभाव निरंतर बढता ही गया तथा अधिकांश समाज अपने बालकोंको अंग्रेजी शिक्षा देनेकी स्पर्धामें उतर गया । (आजकलके अधिकतर अभिभावकोंका जीवनविषयक तत्त्वज्ञान पश्चिमी संस्कृतिपर आधारित तथा मनोरंजनपरक बन गया है । अतः उनकी संतानपर भी उन्हींके विचारोंके अनुरूप कृत्य करनेके संस्कार होते हैं । अधिक अंक, अंकोंकी स्पर्धा, प्रत्येक वस्तुकी स्पर्धा, पैसा, उसके लिए कैरियर यह अभिभावकोंका जीवनके प्रति दृष्टिकोण बन गया है । पश्चिमी संस्कृतिका आक्रमण एवं स्वसंस्कृतिका विस्मरण, इस कारण आजकलके लाडले सुनते नहीं; ऐसा चित्र प्रायः सर्वत्र देखने मिलता है । इस कारण अभिभावक उन्हें विविध प्रकारकी रुचियोंमें (शौकमें) तथा अभ्यासवर्गमें व्यस्त रखते हैं । उनपर सुसंस्कार हों, ऐसे बहुतेरे सुशिक्षित अभिभावकोंकी आंतरिक इच्छा होती तो है; किंतु ऐसी स्थितिमें क्या करना चाहिए, यह उन्हें ज्ञात नहीं होता । अतः अब ऐसा प्रतीत हो रहा है, जैसे अंग्रेजोंके दिखाए भोगवादकी ओर जानेवाली पीढी गढनेका बीडा आजके अभिभावकोंने उठा लिया है ।
भारतपर राज्य करनेवाले अंग्रेजोंने राष्ट्राभिमानी एवं धर्माभिमानी नागरिकोंका निर्माण करनेवाली उज्ज्वल `गुरुकुल शिक्षणपद्धति’ नष्ट कर दी । तबसे धर्माभिमानी हिंदुका निर्माण करनेवाला मुख्य स्रोत ही मिट गया । स्वातंत्र्योत्तरकालमें भारतमें अंग्रेजी शिक्षाका प्रभाव निरंतर बढता ही गया तथा अधिकांश समाज अपने बालकोंको अंग्रेजी शिक्षा देनेकी स्पर्धामें उतर गया । (आजकलके अधिकतर अभिभावकोंका जीवनविषयक तत्त्वज्ञान पश्चिमी संस्कृतिपर आधारित तथा मनोरंजनपरक बन गया है । अतः उनकी संतानपर भी उन्हींके विचारोंके अनुरूप कृत्य करनेके संस्कार होते हैं । अधिक अंक, अंकोंकी स्पर्धा, प्रत्येक वस्तुकी स्पर्धा, पैसा, उसके लिए कैरियर यह अभिभावकोंका जीवनके प्रति दृष्टिकोण बन गया है । पश्चिमी संस्कृतिका आक्रमण एवं स्वसंस्कृतिका विस्मरण, इस कारण आजकलके लाडले सुनते नहीं; ऐसा चित्र प्रायः सर्वत्र देखने मिलता है । इस कारण अभिभावक उन्हें विविध प्रकारकी रुचियोंमें (शौकमें) तथा अभ्यासवर्गमें व्यस्त रखते हैं । उनपर सुसंस्कार हों, ऐसे बहुतेरे सुशिक्षित अभिभावकोंकी आंतरिक इच्छा होती तो है; किंतु ऐसी स्थितिमें क्या करना चाहिए, यह उन्हें ज्ञात नहीं होता । अतः अब ऐसा प्रतीत हो रहा है, जैसे अंग्रेजोंके दिखाए भोगवादकी ओर जानेवाली पीढी गढनेका बीडा आजके अभिभावकोंने उठा लिया है ।
४ उ. धर्मशिक्षण से केवल उच्चशिक्षण, इस अधःपतन की ओर अग्रसर भारतीय शिक्षण का प्रवास !
४ उ १. प्राचीनकालकी गुरुकुल शिक्षणपद्धति में राष्ट्राभिमानी पीढी बनानेकी
शक्ति होना
प्राचीनकालमें `गुरुकुल शिक्षणपद्धति’ भारतकी खरी पहचान थी । धर्मधुरंधर एवं
राष्ट्राभिमानी पीढीका सृजन करनेकी शक्ति इस पद्धतिमें है – यह अंग्रेजोंको ज्ञात होते ही उन्होंने
मॅकालेको भारतमें लाकर `गुरुकुल शिक्षणपद्धति’ नष्ट कर डाली । मॅकालेके बोए अंग्रेजी
शिक्षणके विषैले बीजोंका बडा वृक्ष बनाया । हिंदु नया वर्ष कबसे आरंभ होता है ? हमारा प्रमुख धर्मग्रंथ कौन-सा है ? हिंदु धर्मके प्रमुख देवता कौन एवं उनका कार्य
क्या है ?
मनुष्यजन्मका ध्येय
क्या है ?,
ऐसे बहुतेरे मौलिक प्रश्नोंके
उत्तर आजके युवकोंको देना संभव नहीं, यह सत्य दुर्भाग्यसे हमें पचाना ही होगा ! हिंदु धर्मके मूल्य आचारणमें
लाना जीवनका खरा सार है तथा अंग्रेजोंका ज्ञान हमें हिंदु धर्मसे दूर ले जा रहा है, इसका ज्ञान ही हमें नहीं होता, यही शोकांतिका है !https://www.hindujagruti.org/hinduism-for-kids-hindi/35.html
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