Saturday, July 22, 2017

भगवान शिव के इस अवतार के कारण हुई थी लक्ष्मण की मृत्यु

धर्म ग्रंथों में भगवान शिव के अनेक अवतार बताए गए हैं, उन्हीं में से एक अवतार हैं महर्षि दुर्वासा का। रामायण व महाभारत में भी महर्षि दुर्वासा से जुड़े प्रसंग मिलते हैं। महर्षि दुर्वासा अपन क्रोध के कारण प्रसिद्ध थे। आज हम आपको भगवान शिव के इसी अवतार के बारे में बता रहे हैं।

इस कारण त्यागे थे लक्ष्मण ने प्राण
वाल्मीकि रामायण के अनुसार, जब श्रीराम अयोध्या के राजा थे, तब एक दिन काल तपस्वी के रूप में अयोध्या आया। काल ने श्रीराम से अकेले में बात करने की इच्छा प्रकट की और कहा कि- यदि कोई हमें बात करता हुआ देख ले तो वह आपके द्वारा मारा जाए। श्रीराम ने काल को ये वचन दे दिया और लक्ष्मण को पहरा देने के लिए दरवाजे पर खड़ा कर दिया ताकि कोई अंदर न आ सके।
जब काल और श्रीराम बात कर रहे थे, तभी महर्षि दुर्वासा वहां आ गए। वे श्रीराम से मिलना चाहते थे। लक्ष्मण ने उनसे कहा कि- आपको जो भी कार्य है, मुझसे कहिए, मैं आपकी सेवा करूंगा। यह बात सुनकर महर्षि दुर्वासा क्रोधित हो गए और उन्होंने कहा- अगर इसी समय तुमने जाकर श्रीराम को मेरे आने के बारे में नहीं बताया तो तो मैं तुम्हारे पूरे राज्य को श्राप दे दूंगा।
लक्ष्मण ने सोचा कि- अकेले मेरी ही मृत्यु हो, यह अच्छा है किंतु प्रजा का नाश नहीं होना चाहिए। यह सोचकर लक्ष्मण ने श्रीराम को जाकर दुर्वासा मुनि के आने की सूचना दे दी। महर्षि दुर्वासा की इच्छा पूरी करने के बाद श्रीराम को अपने वचन का ध्यान आया। तब लक्ष्मण ने कहा कि- आप निश्चिंत होकर मेरा वध कर दीजिए, जिससे आपकी प्रतिज्ञा भंग न हो।
जब श्रीराम ने ये बात महर्षि वशिष्ठ को बताई तो उन्होंने कहा कि- आप लक्ष्मण का त्याग कर दीजिए। साधु पुरुष का त्याग व वध एक ही समान है। श्रीराम ने ऐसा ही किया। श्रीराम द्वारा त्यागे जाने से दुखी होकर लक्ष्मण सीधे सरयू नदी के तट पर पहुंचे और योग क्रिया द्वारा अपना शरीर त्याग दिया।

इंद्र को दिया श्राप
एक बार देवराज इंद्र ऐरावत हाथी पर सवार होकर जा रहे थे। महर्षि दुर्वासा ने जब उन्हें देखा तो आशीर्वाद स्वरूप पारिजात पुष्पों की माला उन्हें दे दी। अभिमान के कारण इन्द्र ने वह माला अपने हाथी के मस्तक पर रख दी। जब दुर्वासा ने देखा की इन्द्र ने मेरे द्वारा दी गई माला का अपमान किया है तो उन्होंने इन्द्र सहित संपूर्ण स्वर्ग को श्रीहीन होने का शाप दे दिया। इस श्राप के कारण स्वर्ग की धन-संपत्ति, ऐश्वर्य, लक्ष्मी आदि सभी कुछ नष्ट हो गया। बाद में जब देवताओं व दानवों ने मिलकर समुद्र मंथन किया, तब स्वर्ग का ऐश्वर्य पुनः लौट आया।

कुंती को दिया था वरदान
कुन्ती यदुवंशी राजा शूरसेन की पुत्री व श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव की बहन थीं। बचपन में इनका नाम पृथा था। कुंती को राजा शूरसेन ने अपनी बुआ के संतानहीन पुत्र कुंतीभोज को गोद दे दिया था। इसी के चलते पृथा का नाम कुंती हो गया। एक बार महर्षि दुर्वासा राजा कुंतीभोज के महल में आए। कुंतीभोज ने दुर्वासा ऋषि की सेवा की जिम्मेदारी कुंती को सौंप दी। कुंती ने मन लगाकार महर्षि दुर्वासा की सेवा की। प्रसन्न होकर महर्षि दुर्वासा ने कुंती को एक मंत्र दिया और वरदान दिया कि- तुम जिस देवता का आवाहन करोगी, उसी से तुम्हें संतान की प्राप्ति होगी। महर्षि दुर्वासा के इसी वरदान के कारण पांडवों व कर्ण की जन्म हुआ था।

जब पांडवों के अतिथि बने दुर्वासा मुनि
एक बार दुर्वासा मुनि अपने दस हज़ार शिष्यों के साथ दुर्योधन के यहां पहुंचे। दुर्योधन ने उनकी बहुत सेवा की और ये वरदान मांगा कि वे अपने शिष्यों सहित वनवासी युधिष्ठिर का आतिथ्य ग्रहण करें। वे उनके पास तब जाएं जब द्रौपदी भोजन कर चुकी हो। दुर्योधन जानता था कि द्रौपदी के भोजन करने के बाद बटलोई में कुछ भी शेष नहीं होगा और दुर्वासा पांडवों को श्राप दे देंगे।
दुर्वासा दुर्योधन के बताए समय पर पांडवों के पास पहुंचे तथा उन्हें रसोई बनाने का आदेश देकर स्नान करने चले गए। धर्म संकट में पड़कर द्रौपदी ने श्रीकृष्ण को याद किया। श्रीकृष्ण तुंरत वहां आ गए और उन्होंने बटलोई में लगा हुआ जरा सा साग खा लिया और कहा- इस साग से संपूर्ण विश्व के आत्मा, यज्ञभोक्ता सर्वेश्वर भगवान श्रीहरि तृप्त तथा संतुष्ट हों। उनके ऐसा करते ही दुर्वासा को अपने शिष्यों सहित तृप्ति के डकार आने लगे। वे लोग यह सोचकर कि पांडवगण अपनी बनाई रसोई को व्यर्थ जाता देख रुष्ट होंगे, वहां से चले गए।

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