सनातन धर्म में
शुरू से ही गुरुओं के सम्मान की परंपरा रही है। हमारे धर्म ग्रंथों में ऐसे अनेक
गुरुओं का वर्णन मिलता है, जिन्होंने गुरु-शिष्य परंपरा को नई ऊंचाइयां प्रदान की।
इनमें से परशुराम और महर्षि वेदव्यास को आज भी जीवित माना जाता है। आज (9 जुलाई, रविवार) गुरु
पूर्णिमा के अवसर पर हम आपको धर्म ग्रंथों में बताए गए कुछ महान गुरुओं के बारे
में बता रहे हैं।
गुरु श्री परशुराम
परशुराम महान
योद्धा व गुरु थे। ये जन्म से ब्राह्मण थे, लेकिन इनका स्वभाव क्षत्रियों जैसा था। ये भगवान विष्णु के
अंशावतार थे। इन्होंने भगवान शिव से अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा प्राप्त की थी। इनके
पिता का नाम जमदग्नि तथा माता का नाम रेणुका था। अपने पिता की हत्या का बदला लेने
के लिए इन्होंने अनेक बार धरती को क्षत्रिय विहीन कर दिया था। भीष्म, द्रोणाचार्य व
कर्ण इनके शिष्य थे। धर्म ग्रंथों के अनुसार, परशुराम अमर हैं और वे आज भी कहीं तपस्या में लीन हैं।
कर्ण को दिया था
श्राप
महाभारत के
अनुसार, कर्ण परशुराम का
शिष्य था। कर्ण ने परशुराम को अपना परिचय एक ब्राह्मण पुत्र के रूप में दिया था।
एक बार जब परशुराम कर्ण की गोद में सिर रखकर सो रहे थे। उसी समय कर्ण को एक भयंकर
कीड़े ने काट लिया। गुरु की नींद में विघ्न न आए ये सोचकर कर्ण दर्द सहते रहे, लेकिन उन्होंने
परशुराम को नींद से नहीं उठाया।
नींद से उठने पर
जब परशुराम ने ये देखा तो वे समझ गए कि कर्ण ब्राह्मण पुत्र नहीं बल्कि क्षत्रिय
है। तब क्रोधित होकर परशुराम ने कर्ण को श्राप दिया कि मेरी सिखाई हुई शस्त्र
विद्या की जब तुम्हें सबसे अधिक आवश्यकता होगी, उस समय तुम वह विद्या भूल जाओगे। इस प्रकार परशुराम के
श्राप के कारण ही कर्ण की मृत्यु हुई।
गुरु श्री महर्षि वेदव्यास
धर्म ग्रंथों के अनुसार, महर्षि वेदव्यास
भगवान विष्णु के अवतार थे। इनका पूरा नाम कृष्णद्वैपायन था। इन्होंने ने ही वेदों
का विभाग किया। इसलिए इनका नाम वेदव्यास पड़ा। महाभारत जैसे श्रेष्ठ ग्रंथ की रचना
भी इन्होंने ही की है। इनके पिता महर्षि पाराशर तथा माता सत्यवती थीं। पैल, जैमिन, वैशम्पायन, सुमन्तु मुनि, रोमहर्षण आदि
महर्षि वेदव्यास के महान शिष्य थे।
महर्षि वेदव्यास
के वरदान से हुआ था कौरवों का जन्म
एक बार महर्षि वेदव्यास हस्तिनापुर गए। वहां गांधारी
ने उनकी बहुत सेवा की। उसकी सेवा से प्रसन्न होकर महर्षि ने उसे सौ पुत्रों की
माता होने का वरदान दिया। समय आने पर गांधारी गर्भवती हुई, लेकिन उसके गर्भ
से मांस का गोल पिंड निकला। गांधारी उसे नष्ट करना चाहती थी। यह बात वेदव्यासजी ने
जान ली और गांधारी से कहा कि वह 100 कुंडों का निर्माण करवाए और उसे घी से भर दे। इसके बाद
महर्षि वेदव्यास ने उस पिंड के 100 टुकड़े कर उन्हें अलग-अलग कुंडों में डाल दिया। कुछ समय बाद
उन कुंडों से गांधारी के 100 पुत्र उत्पन्न हुए।
देवगुरु श्री बृहस्पति
देवताओं के गुरु बृहस्पति हैं। महाभारत के आदि पर्व
के अनुसार, बृहस्पति महर्षि अंगिरा के पुत्र हैं। ये अपने ज्ञान से
देवताओं को उनका यज्ञ भाग प्राप्त कराते हैं। ग्रंथों के अनुसार, जब असुर देवताओं
को हराने का प्रयास करते थे, तब देवगुरु बृहस्पति रक्षा मंत्रों का प्रयोग कर देवताओं का
पोषण एवं रक्षा करते थे।
बृहस्पति ने शची
को बताया था एक उपाय
एक बार देवराज इंद्र किसी कारणवश स्वर्ग छोड़ कर चले
गए। उनके स्थान पर राजा नहुष को स्वर्ग का राजा बनाया गया। स्वर्ग का राजा बनते ही
नहुष के मन में पाप आ गया और उसने इंद्र की पत्नी शची पर भी अधिकार करना चाहा।
यह बात शची ने देवगुरु बृहस्पति को बताई। देवगुरु
बृहस्पति ने शची से कहा कि तुम नहुष से कहना कि यदि वह सप्त ऋषियों द्वारा उठाई गई
पालकी में बैठकर आएगा, तभी तुम उसे अपना स्वामी मानोगी। शची ने यह बात नहुष से कह
दी। नहुष ने ऐसा ही किया।
सप्तऋषि जब पालकी उठाकर चल रहे थे, तभी नहुष ने एक ऋषि को लात मार दी। क्रोधित होकर अगस्त्य ऋषि ने उसे उसी समय स्वर्ग से गिरने का श्राप दे दिया। इस प्रकार देवगुरु बृहस्पति की सलाह से शची का पतिव्रत धर्म बना रहा।
सप्तऋषि जब पालकी उठाकर चल रहे थे, तभी नहुष ने एक ऋषि को लात मार दी। क्रोधित होकर अगस्त्य ऋषि ने उसे उसी समय स्वर्ग से गिरने का श्राप दे दिया। इस प्रकार देवगुरु बृहस्पति की सलाह से शची का पतिव्रत धर्म बना रहा।
दैत्यगुरु श्री शुक्राचार्य
शुक्राचार्य दैत्यों के गुरु हैं। ये भृगु ऋषि तथा
हिरण्यकशिपु की पुत्री दिव्या के पुत्र हैं। इनका जन्म का नाम शुक्र उशनस है।
इन्हें भगवान शिव ने मृत संजीवन विद्या का ज्ञान दिया था, जिसके बल पर यह
मृत दैत्यों को पुन: जीवित कर देते थे।
भगवान वामन ने
फोड़ी थी एक आंख
ग्रंथों के अनुसार, भगवान विष्णु ने वामन अवतार में जब राजा बलि से तीन पग भूमि
मांगी तब शुक्राचार्य सूक्ष्म रूप में बलि के कमंडल में जाकर बैठ गए, जिससे की पानी
बाहर न आए और बलि भूमि दान का संकल्प न ले सकें। तब वामन भगवान ने बलि के कमंडल
में एक तिनका डाला, जिससे शुक्राचार्य की एक आंख फूट गई। इसलिए इन्हें एकाक्ष
यानी एक आंख वाला भी कहा जाता है।
गुरु श्री वशिष्ठ
ऋषि
वशिष्ठ ऋषि सूर्यवंश के कुलगुरु थे। इन्हीं के
परामर्श पर राजा दशरथ ने पुत्रेष्टि यज्ञ किया था, जिसके फलस्वरूप श्रीराम, लक्ष्मण, भरत व शत्रुघ्न का जन्म हुआ। भगवान राम ने सारी
वेद-वेदांगों की शिक्षा वशिष्ठ ऋषि से ही प्राप्त की थी। श्रीराम के वनवास से
लौटने के बाद इन्हीं के द्वारा उनका राज्याभिषेक हुआ और रामराज्य की स्थापना संभव
हो सकी। इन्होंने वशिष्ठ पुराण, वशिष्ठ श्राद्धकल्प, वशिष्ठ शिक्षा आदि ग्रंथों की रचना भी की।
ब्रह्मतेज से
हराया था विश्वामित्र को
एक बार राजा विश्वामित्र शिकार खेलते-खेलते बहुत दूर
निकल आए। थोड़ी देर आराम करने के लिए वे ऋषि वशिष्ठ के आश्रम में रुक गए। यहां
उन्होंने कामधेनु नंदिनी को देखा। नंदिनी गाय को देख विश्वामित्र ने वशिष्ठ से कहा
यह गाय आप मुझे दे दीजिए, इसके बदले आप जो चाहें मुझसे मांग लीजिए, लेकिन ऋषि वशिष्ठ
ने ऐसा करने से मना कर दिया।
तब राजा विश्वामित्र नंदिनी को बलपूर्वक अपने साथ ले जाने लगे। तब ऋषि वशिष्ठ के कहने पर नंदिनी ने क्रोधित होकर विश्वामित्र सहित उनकी पूरी सेना को भगा दिया। ऋषि वशिष्ठ का ब्रह्मतेज देख कर विश्वामित्र को बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने भी अपना राज्य त्याग दिया और तप करने लगे।
तब राजा विश्वामित्र नंदिनी को बलपूर्वक अपने साथ ले जाने लगे। तब ऋषि वशिष्ठ के कहने पर नंदिनी ने क्रोधित होकर विश्वामित्र सहित उनकी पूरी सेना को भगा दिया। ऋषि वशिष्ठ का ब्रह्मतेज देख कर विश्वामित्र को बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने भी अपना राज्य त्याग दिया और तप करने लगे।
गुरु श्री सांदीपनि
महर्षि सांदीपनि भगवान श्रीकृष्ण के गुरु थे।
श्रीकृष्ण व बलराम इनसे शिक्षा प्राप्त करने मथुरा से उज्जयिनी (वर्तमान उज्जैन)
आए थे। महर्षि सांदीपनि ने ही भगवान श्रीकृष्ण को 64 कलाओं की शिक्षा दी थी। श्रीकृष्ण ने ये कलाएं 64 दिन में सीख ली
थीं। मध्य प्रदेश के उज्जैन शहर में आज भी गुरु सांदीपनि का आश्रम है।
गुरु दक्षिणा
श्रीकृष्ण से मांगे थे अपने पुत्र
मथुरा में कंस वध के बाद भगवान श्रीकृष्ण को वसुदेव
और देवकी ने शिक्षा ग्रहण करने के लिए अवंतिका नगरी (वर्तमान में मध्यप्रदेश के
उज्जैन) में गुरु सांदीपनि के पास भेजा। शिक्षा ग्रहण करने के बाद जब गुरुदक्षिणा
की बात आई तो ऋषि सांदीपनि ने श्रीकृष्ण से कहा कि तुमसे क्या मांगू, संसार में कोई
ऐसी वस्तु नहीं जो तुमसे मांगी जाए और तुम न दे सको। श्रीकृष्ण ने कहा कि आप मुझसे
कुछ भी मांग लीजिए, मैं लाकर दूंगा। तभी गुरु दक्षिणा पूरी हो पाएगी। ऋषि
सांदीपनि ने कहा कि शंखासुर नाम का एक दैत्य मेरे पुत्र को उठाकर ले गया है। उसे
लौटा लाओ। श्रीकृष्ण ने गुरु पुत्र को लौटा लाने का वचन दे दिया और बलराम के साथ
उसे खोजने निकल पड़े।
खोजते-खोजते सागर किनारे तक आ गए। समुद्र से पूछने पर
उसने भगवान को बताया कि पंचज जाति का दैत्य शंख के रूप में समुद्र में छिपा है। हो
सकता है कि उसी ने आपके गुरु पुत्र को खाया हो। भगवान ने समुद्र में जाकर शंखासुर
को मारकर उसके पेट में अपने गुरु पुत्र को खोजा, लेकिन वो नहीं मिला। शंखासुर के शरीर का शंख लेकर भगवान
यमलोक गए। भगवान ने यमराज से गुरु पुत्र को वापस लाए और गुरु सांदीपनि को उनका
पुत्र लौटाकर गुरु दक्षिणा पूरी की।
ब्रह्मर्षि गुरु श्री
विश्वामित्र
धर्म ग्रंथों के अनुसार विश्वामित्र जन्म से क्षत्रिय
थे, लेकिन इनकी घोर
तपस्या से प्रसन्न भगवान ब्रह्मा ने इन्हें ब्रह्मर्षि का पद प्रदान किया था। अपने
यज्ञ को पूर्ण करने के लिए ऋषि विश्वामित्र श्रीराम व लक्ष्मण को अपने साथ वन में
ले गए थे, जहां उन्होंने
श्रीराम को अनेक दिव्यास्त्र प्रदान किए थे। रामचरितमानस के अनुसार भगवान श्रीराम
को सीता स्वयंवर में ऋषि विश्वामित्र ही लेकर गए थे।
इसलिए बाद में
ब्रह्मर्षि बने विश्वामित्र
विश्वामित्र के पिता का नाम राजा गाधि था। राजा गाधि
की पुत्री सत्यवती का विवाह महर्षि भृगु के पुत्र ऋचिक से हुआ था। विवाह के बाद
सत्यवती ने अपने ससुर महर्षि भृगु से अपने व अपनी माता के लिए पुत्र की याचना की।
तब महर्षि भृगु ने सत्यवती को दो फल दिए और कहा कि ऋतु स्नान के बाद तुम गूलर के
वृक्ष का तथा तुम्हारी माता पीपल के वृक्ष का आलिंगन करने के बाद ये फल खा लेना।
किंतु सत्यवती व उनकी मां ने भूलवश इस काम में गलती कर दी। यह बात महर्षि भृगु को पता चल गई। तब उन्होंने सत्यवती से कहा कि तूने गलत वृक्ष का आलिंगन किया है। इसलिए तेरा पुत्र ब्राह्मण होने पर भी क्षत्रिय गुणों वाला रहेगा और तेरी माता का पुत्र क्षत्रिय होने पर भी ब्राह्मणों की तरह आचरण करेगा। यही कारण था कि क्षत्रिय होने के बाद भी विश्वामित्र ने ब्रह्मर्षि का पद प्राप्त किया।
किंतु सत्यवती व उनकी मां ने भूलवश इस काम में गलती कर दी। यह बात महर्षि भृगु को पता चल गई। तब उन्होंने सत्यवती से कहा कि तूने गलत वृक्ष का आलिंगन किया है। इसलिए तेरा पुत्र ब्राह्मण होने पर भी क्षत्रिय गुणों वाला रहेगा और तेरी माता का पुत्र क्षत्रिय होने पर भी ब्राह्मणों की तरह आचरण करेगा। यही कारण था कि क्षत्रिय होने के बाद भी विश्वामित्र ने ब्रह्मर्षि का पद प्राप्त किया।
गुरु श्री द्रोणाचार्य
द्रोणाचार्य महान धनुर्धर थे। उन्होंने ही कौरव व
पांडवों को अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा दी थी। महाभारत के अनुसार द्रोणाचार्य देवगुरु
बृहस्पति के अंशावतार थे। इनके पिता का नाम महर्षि भरद्वाज था। द्रोणाचार्य का
विवाह शरद्वान की पुत्री कृपी से हुआ था। इनके पुत्र का महान अश्वत्थामा था। महान
धनुर्धर अर्जुन इनका प्रिय शिष्य था।
अर्जुन को दिया
था वरदान
एक बार गुरु द्रोणाचार्य नदी में स्नान कर रहे थे, उसी समय उन्हें
एक मगर में पकड़ लिया। वे सहायता के लिए अपने शिष्यों को पुकारने लगे। वहां
दुर्योधन, युधिष्ठिर, भीम, दु:शासन आदि बहुत
से शिष्य खड़े थे, लेकिन गुरु को विपत्ति में देख वे भी बहुत डर गए। तब अर्जुन
ने अपने तीखे बाणों से उस मगर का अंत कर दिया। अर्जुन की वीरता देखकर गुरु
द्रोणाचार्य ने उसे सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर होने का वरदान दिया।
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