Monday, December 5, 2016

श्रीराम-सीता का विवाह

धर्म ग्रंथों के अनुसार, अगहन मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को भगवान श्रीराम व सीता का विवाह हुआ था। इसीलिए इस दिन विवाह पंचमी का पर्व बड़ी ही धूमधाम से मनाया जाता है। इस अवसर पर हम आपको बता रहे हैं श्रीरामचरित मानस के अनुसार, श्रीराम ने सीता को पहली कहां और कब देखा था तथा श्रीराम-सीता विवाह का संपूर्ण प्रसंग, जो इस प्रकार है-

यहां देखा था श्रीराम ने पहली बार सीता को

जब श्रीराम व लक्ष्मण ऋषि विश्वामित्र के साथ जनकपुरी पहुंचे तो राजा जनक सभी को आदरपूर्वक अपने साथ महल लेकर आए। अगले दिन सुबह दोनों भाई फूल लेने बगीचे गए। उसी समय राजा जनक की पुत्री सीता भी माता पार्वती की पूजा करने के लिए वहां आईं। सीता श्रीराम को देखकर मोहित हो गईं और एकटक निहारती रहीं। श्रीराम भी सीता को देखकर बहुत आनंदित हुए-

देखि सीय सोभा सुखु पावा। ह्रदयं सराहत बचनु न आवा।।
जनु बिरंचि जब निज निपुनाई। बिरचि बिस्व कहं प्रगटि देखाई।।

अर्थात- सीताजी को शोभा देखकर श्रीराम ने बड़ा सुख पाया। ह्रदय में वे उसकी सराहना करते हैं, किंतु मुख से वचन नहीं निकलते। मानों ब्रह्मा ने अपनी सारी निपुणता को मूर्तिमान कर संसार को प्रकट करके दिखा दिया हो।
माता पार्वती का पूजन करते समय सीता ने श्रीराम को पति रूप में पाने की कामना की। अगले दिन धनुष यज्ञ (जो भगवान शंकर के धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाएगा, सीता का विवाह उसी के साथ होगा) का आयोजन किया गया। राजा जनक के बुलावे पर ऋषि विश्वामित्र व श्रीराम व लक्ष्मण भी उस धनुष यज्ञ को देखने के लिए गए।

राक्षसों को श्रीराम के रूप में अपना काल नजर आया

राजा जनक के निमंत्रण पर श्रीराम व लक्ष्मण ऋषि विश्वामित्र के साथ धनुष यज्ञ (सीता स्वयंवर) में गए। उस सभा में अनेक वीर और पराक्रमी राजा-महाराजा पहले से ही उपस्थित थे। जैसे ही श्रीराम ने सभा में प्रवेश किया, सभी उनकी ओर एकटक देखते ही रह गए। जो राक्षस राजा का वेष बनाकर उस सभा में बैठे थे, उन्हें श्रीराम के रूप में अपना काल नजर आया। राजा जनक ने उचित समय देखकर अपनी पुत्री सीता को भी वहां बुलवा लिया। सभा में आते ही सीता की नजर सबसे पहले श्रीराम पर पड़ी।

सीय चकित चित रामहि चाहा। भए मोहबस सब नरनाहा।।
मुनि समीप देखे दोउ भाई। लगे ललकि लोचन निधि पाई।।

अर्थात- सीताजी चकित चित्त से श्रीराम को देखने लगीं, तब सब राजा लोग मोह के वश हो गए। सीताजी ने मुनि के पास दोनों भाइयों को देखा तो उनके नेत्र अपना खजाना पाकर ललचा कर वहीं (श्रीराम में) जा लगे।
तभी सेवकों ने राजा जनक के कहने पर भरी सभा में घोषणा की कि यहां जो शिवजी का धनुष रखा है, वह भारी और कठोर है। जो राजपुरुष इस धनुष को तोड़ेगा, वही जनककुमारी सीता का वरण करेगा।

कोई नहीं देख पाया श्रीराम को धनुष तोड़ते

घोषणा सुनने के बाद अनेक वीर पराक्रमी राजाओं ने उस शिव धनुष को उठाने का प्रयास किया, लेकिन वे सफल नहीं हो पाए। यह देखकर राजा जनक के मन में शोक छा गया और वे बोले- लगता है पूरी पृथ्वी वीरों से शून्य हो गई है। राजा ऋषि विश्वामित्र के कहने पर श्रीराम उस शिव धनुष को तोड़ने के लिए चले। यह देख सीता भी श्रीराम के सफल होने की प्रार्थना करने लगी। श्रीराम ने मन ही मन गुरु को प्रणाम किया और बड़ी फुर्ती से धनुष को उठा लिया।
लेते चढ़ावत खैंचत गाढ़ें। काहुं न लखा देख सबु ठाड़ें।।
तेहि छन राम मध्य धनु तोरा। भरे भुवन धुनि घोर कठोरा।।

अर्थात- लेते चढ़ाते और जोर से खींचते हुए किसी ने नहीं देखा (ये काम इतनी फुर्ती से हुए)। सबने श्रीराम को खड़े देखा। उसी क्षण श्रीराम ने धनुष को बीच से तोड़ डाला। कठोर ध्वनि से सभी लोक भर गए।
यह देख राजा जनक, उनकी रानी व सीता के मन में हर्ष छा गया। मंगल गीत गाए जाने लगे। ढोल, मृदंग, शहनाई आदि बजने लगे। सीता ने सकुचाते हुए वरमाला श्रीराम के गले में डाल दी। यह दृश्य देख देवता भी प्रसन्न होकर फूल बरसाने लगे। श्रीराम व सीता की जोड़ी ऐसी लग रही थी मानो सुंदरता व श्रंगार रस एकत्रित हो गए हों।

दुष्ट राजा बंदी बनाना चाहते थे श्रीराम व लक्ष्मण को

सीता को श्रीराम का वरण करते देख कुछ दुष्ट राजा बोले कि इन दोनों राजकुमारों को बंदी बना लो और सीता को अपने साथ ले चलो। ऐसी बात सुनकर लक्ष्मण क्रोधित हो गए। उसी समय वहां परशुराम आ गए। उन्हें देखकर वहां उपस्थित सभी राजा भयभीत हो गए। जब उन्होंने अपने आराध्य देव शिव का धनुष टूटा देखा तो वे बहुत क्रोधित हो गए और राजा जनक ने पूछा कि ये किसने किया है मगर भय के कारण राजा जनक कुछ बोल नहीं पाए।

नाथ संभुधनु भंजनिहारा। होइहि केउ एक दास तुम्हारा।।
आयसु काह कहिन किन मोही। सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही।।

अर्थात- परशुराम के वचन सुनकर श्रीराम बोले- हे नाथ। शिवजी के धनुष को तोड़ने वाला आपका कोई एक दास ही होगा। क्या आज्ञा है, मुझसे क्यों नहीं कहते।
श्रीराम की बात सुनकर परशुराम बोले कि जिसने भी यह धनुष तोड़ा है, वह मेरा शत्रु है। परशुराम का क्रोध देखकर लक्ष्मण उनका उपहास करने लगे। बात बढ़ती देख श्रीराम ने कुछ ऐसी रहस्यपूर्ण बातें परशुराम से कही, जिसे सुन उनकी बुद्धि के परदे खुल गए।

विष्णु धनुष स्वयं चला गया था श्रीराम के हाथों में

परशुराम ने जब श्रीराम के रूप में भगवान विष्णु की छवि देखी तो अपने मन का संदेह मिटाने के लिए उन्होंने अपना विष्णु धनुष श्रीराम को देकर उसे खींचने के लिए कहा। तभी परशुराम ने देखा कि वह धनुष स्वयं श्रीराम के हाथों में चला गया। यह देख कर उनके मन का संदेह दूर हो गया और वे तप के लिए वन में चले गए।
यह देख राजा जनक के मन में संतोष हुआ। तब उन्होंने ऋषि विश्वामित्र के कहने पर राजा दशरथ को बुलावा भेजा और विवाह की तैयारियां करने लगे। सूचना मिलते ही राजा दशरथ भरत, शत्रुघ्न व अपने मंत्रियों के साथ जनकपुरी आ गए। अयोध्यावासी भी खुशी मनाने लगे।

भुवन चारिदस भरा उछाहू। जनकसुता रघुवीर बिआहू।।
सुनि सुभ कथा लोग अनुरागे। मग गृह गलीं संवारन लागे।।

अर्थात- चौदहों लोकों में उत्साह भर गया कि जानकी और श्रीराम का विवाह होगा। यह सुनकर लोग प्रेम मग्न हो गए और रास्ते, घर तथा गलियां सजाने लगे।

ब्रह्माजी ने निश्चित किया था विवाह का मुहूर्त

उस समय हेमंत ऋतु थी और अगहन का महीना था। ग्रह, तिथि, नक्षत्र योग आदि देखकर ब्रह्माजी ने उस पर विचार किया और वह लग्नपत्रिका नारदजी के हाथों राजा जनक को पहुंचाई। शुभ मुहूर्त में श्रीराम की बारात आ गई। राजा जनक ने सभी बारातियों का समधी दशरथ के समान ही सब प्रकार से आदरपूर्वक पूजन किया और सब किसी को उचित आसन दिए।

सुखमूल दूलहु देखि संपति पुलक तन हुलस्यो हियो।
करि लोक बेद बिधानु कन्यादानु नृपभूषन कियो।।

अर्थात- दोनों कुलों के गुरु वर और कन्या की हथेलियों को मिलाकर मंत्रोच्चार करने लगे। पाणिग्रहण हुआ देखकर ब्रह्मादि देवता, मनुष्य और मुनि आनंद में भर गए। राजाओं के अंलकार स्वरूप महाराज जनक न लोक और वेद की रीति के अनुसार कन्यादान किया।
श्रीराम व सीता का विवाह संपन्न होने पर राजा जनक और दशरथ बहुत प्रसन्न हुए। ऋषि वसिष्ठ के कहने पर दूल्हा व दुल्हन को एक आसन पर बैठाया गया।

इस प्रकार हुआ भरत, लक्ष्मण व शत्रुघ्न का विवाह

श्रीराम व सीता का विवाह संपन्न होने के बाद ऋषि वसिष्ठ ने राजा जनक व उनके छोटे भाई कुशध्वज की पुत्रियों मांडवी, श्रुतकीर्ति व उर्मिला को बुलाया। जनक ने राजा दशरथ की सहमति से मांडवी का विवाह भरत से, उर्मिला का विवाह लक्ष्मण व श्रुतकीर्ति का विवाह शत्रुघ्न से कर दिया। अपने सभी पुत्रों का विवाह होते देख राजा दशरथ बहुत आनंदित हुए।

मुदित अवधपति सकल सुत बधुन्ह समेत निहारि।
जनु पाए महिपाल मनि क्रियन्ह सहित फल चारि।।

अर्थात- सब पुत्रों को बहुओं सहित देखकर अवध नरेश दशरथजी ऐसे आनंदित हैं, मानो वे राजाओं के शिरोमणि क्रियाओं सहित चारों फल (अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष) पा गए हों।

ऐसे किया था अयोध्यावासियों ने श्रीराम-सीता का स्वागत

राजा जनक ने राजा दशरथ के साथ आए सभी अतिथियों का बहुत मान-सम्मान किया। जब भी राजा दशरथ अयोध्या जाने के लिए कहते तो जनक उन्हें प्रेमपूर्वक रोक लेते। इस प्रकार कई दिन बीत गए। तब ऋषि विश्वामित्र ने राजा जनक से कहा कि अब राजा दशरथ व अपनी पुत्रियों को स्नेहपूर्वक विदा कीजिए। राजा जनक ने ऐसा ही किया।

सीय चलत ब्याकुल पुरबासी। होहिं सगुन सुभ मंगल रासी।।
भूसुर सचिव समेत समाजा। संग चले पहुंचावन राजा
अर्थात- सीताजी के चलते समय जनकपुरवासी व्याकुल हो गए। मंगल की राशि शुभ शकुन हो रहे हैं। ब्राह्मण और मंत्रियों के समाज सहित राजा जनकजी उन्हें पहुंचाने के लिए साथ चले।
बहुत दूर तक आ जाने पर राजा दशरथ के कहने से जनक अपने नगर लौट गए। बारात जब अयोध्या पहुंची तो नगरवासियों ने पूरे नगर को सजा दिया। कौशल्या, सुमित्रा और कैकयी अपने पुत्रों का साथ बहुओं को देखकर बहुत प्रसन्न हुईं। नगर में भव्य उत्सव मनाया गया। राजा दशरथ ने याचकों को भरपूर धन देकर संतुष्ट कर दिया।
http://religion.bhaskar.com/news/JM-JKR-DHAJ-vivah-panchami-today-4-december-news-hindi-5472458-PHO.html

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