Saturday, April 30, 2016

पारद शिवलिंग पूजन का विशेष महत्व क्यों?


पारद शम्भुबीज है इसलिए शास्त्रकारों ने इसे साक्षात शिव माना है और पारदलिंग का सबसे ज्यादा महत्व बताकर उसे दिव्य बताया है। शुद्ध पारद संस्कार द्वारा बंधन करके जिस देवी-देवता की प्रतिमा बनाई जाती है, वह स्वयं सिद्ध हो सकती है। पारद शब्द में प विष्णु, अ अकार, र शिव और द ब्रह्मा का प्रतीक है।
वागभट्‌ट के मतानुसार जो पारद शिवलिंग का भक्ति सहित पूजा करता है उसे तीनों लोकों में स्थित शिवलिंग का पूजन फल मिलता है। पारदलिंग का दर्शन महापुण्य देने वाला है। इसके दर्शन से सैकड़ों अश्वमेघ यज्ञों का फल प्राप्त होता है। यह सभी तरह के लौकिक और परालौकिक सुख देने वाला है। इस शिवलिंग का जहां नियमित पूजन होता है वहां धन की कभी कमी नहीं होती है। साक्षात भगवान शंकर का वास भी होता है। इसके अलावा वहां का वास्तुदोष भी समाप्त हो जाता है। हर सोमवार को पारद शिवलिंग का अभिषेक करने पर तांत्रिक प्रयोग का असर खत्म हो जाता है।
शिवमहापुराण में शिवजी का कथन है
लिंगकोटिसहस्त्रय यत्फलं सम्यगर्चनात्।
तत्फलं कोटिगुणितं रसलिंगार्चनाद्भवेत्।।
ब्रहमाहत्या सहस्त्राणि गौहत्याया: शतानि च।
तत्क्षणद्विलयं यांति रसलिंगस्य दर्शनात्।।
स्पर्शनात्प्राप्यत मुक्तिरिति सत्यं शिवोदितम्।।

यानी करोड़ों शिवलिंगों के पूजन से जो फल मिलता है, उससे भी करोड़ गुना फल पारद शिवलिंग की पूजा और दर्शन से मिलता है। हजारों ब्रह्मा हत्याएं ओर सैकड़ों गौ-हत्याओं का पाप पारद शिवलिंग के दर्शन मात्र से दूर हो जाता है। पारद शिवलिंग को छूने से भी मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है।
http://religion.bhaskar.com/news/JM-JMJ-SAS-importance-of-parad-5100721-NOR.html

Friday, April 29, 2016

गणेशजी को दूर्वा क्यों चढ़ाते हैं?

प्रथम पूज्य श्रीगणेश को विशेष रूप से दूर्वा अर्पित की जाती है। दूर्वा एक प्रकार की घास है। ऐसा माना जाता है कि गजानंद को यह घास चढ़ाने से उनकी कृपा प्राप्त होती है और घर में रिद्धि-सिद्ध का वास होता है। गणेशजी को दूर्वा सभी लोग अर्पित करते हैं, लेकिन ये बात बहुत कम लोग जानते हैं कि दूर्वा अर्पित क्यों की जाती है। यह प्राचीन परंपरा है और इस संबंध में एक कथा प्रचलित है। यहां जानिए गणेशजी को दूर्वा चढ़ाने की परंपरा से जुड़ी कथा...
ये है पुराने समय से प्रचलित कथा...
कथा के अनुसार प्राचीन काल में अनलासुर नाम का एक दैत्य था। इस दैत्य के आतंक से स्वर्ग और धरती पर त्राही-त्राही मची हुई थी। अनलासुर ऋषि-मुनियों और आम लोगों को जिंदा निगल जाता था। दैत्य से त्रस्त होकर देवराज इंद्र सहित सभी देवी-देवता और प्रमुख ऋषि-मुनि महादेव से प्रार्थना करने पहुंचे। सभी ने शिवजी से प्रार्थना की कि वे अनलासुर के आतंक का नाश करें। शिवजी ने सभी देवी-देवताओं और ऋषि-मुनियों की प्रार्थना सुनकर कहा कि अनलासुर का अंत केवल श्रीगणेश ही कर सकते हैं।
शिवजी ने कहा कि अनलासुर का अंत करने के लिए उसे निगलना पड़ेगा और ये काम सिर्फ गणेश ही कर सकते हैं। गणेशजी का पेट काफी बड़ा है, अत: वे अनलासुर को आसानी से निगल सकते हैं। यह सुनकर सभी देवी-देवता भगवान गणेश के पास पहुंच गए। श्रीगणेश की स्तुति कर उन्हें प्रसन्न किया। प्रसन्न होकर गणेशजी अनलासुर को समाप्त करने के लिए तैयार हो गए। इसके बाद श्रीगणेश और अनलासुर के बीच घमासान युद्ध हुआ, अंत में गणेशजी ने असुर को पकड़कर निगल लिया और इसप्रकार अनलासुर के आतंक का अंत हुआ।
जब श्रीगणेश ने अनलासुर को निगला तो उनके पेट में बहुत जलन होने लगी। कई प्रकार के उपाय करने के बाद भी गणेशजी के पेट की जलन शांत नहीं हो रही थी। तब कश्यप ऋषि ने दूर्वा की 21 गांठ बनाकर श्रीगणेश को खाने को दी। जब गणेशजी ने दूर्वा ग्रहण की तो उनके पेट की जलन शांत हो गई। तभी से श्रीगणेश को दूर्वा चढ़ाने की परंपरा प्रारंभ हुई।

Thursday, April 28, 2016

वाल्मीकि रामायण: कभी न करें इन 4 का अपमान, माना जाता है महापाप

वाल्मीकि रामायण में 4 ऐसे लोगों के बारे में बताया गया है, जिनका अपमान करना महापाप है। इन 4 का अपमान करने वाला चाहे कितनी ही पूजा-पाठ या दान-धर्म कर ले, लेकिन उसका पाप नहीं मिटता और उसे इसकी सजा भुगतनी ही पड़ती है। इसलिए, ध्यान रखें कि भूलकर भी आपसे इन 4 लोगों का अपमान न हो जाए।
जानें कौन हैं ये 4 लोग-
मातरं पितरं विप्रमाचार्य चावमन्यते।
स पश्यति फलं तस्य प्रेतराजवशं गतः।।
1. माता
मां को भगवान का दर्जा दिया जाता है। कई धर्म ग्रंथों में मां का सम्मान करने और भूलकर भी उनका अपमान न करने के बारे में बताया गया है। माता की सेवा करने वाला मनुष्य जीवन में सभी सफलताएं पाता है। इसके विपरीत उनका अपमान करने वाला मनुष्य कभी खुश नहीं रह पाता। ऐसे मनुष्य पर भगवान भी रूठे हुए रहते हैं और उसे अपने किसी भी पुण्य कर्म का फल नहीं मिलता। इसलिए, ध्यान रखें किसी भी परिस्थिति में अपनी माता का अपमान न करें।
 2. पिता
हर मनुष्य को अपने माता-पिता में ही अपना पूरा विश्व जानना चाहिए। जो व्यक्ति अपने पिता का सम्मान नहीं करता, उनकी आज्ञा का पालन नहीं करता, वह पशु के समान माना जाता है। माता-पिता का अपमान करना मनुष्य का सबसे बड़ा अवगुण माना जाता है। ऐसा करने वाला मनुष्य चाहे कितनी ही तरक्की कर ले, लेकिन वह समाज में मान-सम्मान नहीं पाता। इसलिए किसी को भी अपने पिता का अपमान बिल्कुल भी नहीं करना चाहिए।
3. गुरु या शिक्षक
हमें शिक्षा और ज्ञान देने वाले को गुरु कहा जाता हैं। गुरु का दर्जा बहुत ऊंचा माना जाता है। सभी धर्म ग्रंथों में गुरु का सम्मान करने की बात कही गई है। जो छात्र अपने गुरु का सम्मान नहीं करता, उनकी दी गई शिक्षा का अनादर करता है, वह कभी भी सफलता हासिल नहीं कर पाता। गुरु का अपमान करने वालों को कभी भी सम्मान नहीं मिलता। ये एक ऐसा पाप कहा गया है, जिसका प्रायश्चित किसी भी तरह नहीं किया जा सकता। इसलिए कभी भी अपने गुरुओं का अपमान नहीं करना चाहिए।
4. ज्ञानी या पंडित
ज्ञानी और पंडित देवतुल्य माने जाते हैं। वे भी देवताओं के समान पूजनीय होते हैं। ज्ञानी लोगों की संगति से हमें कई लाभ होते हैं, हमारी किसी भी मुश्किल परिस्थिति का हल ज्ञानी मनुष्य अपनी सूझ-बूझ और अनुभव से निकाल सकता है। ऐसे लोगों का कभी भी अपमान नहीं करना चाहिए। ऐसे लोगों का अपमान करना महापाप कहा जाता है और इसके कई दुष्परिणाम झेलने पड़ सकते हैं। इसलिए, ज्ञानी या पंडितों का हमेशा सम्मान करें।
http://religion.bhaskar.com/news/JM-JKR-DGRA-lesson-form-ramayana-never-disrespect-these-4-in-hindi-5308243-PHO.html

Wednesday, April 27, 2016

देवताओं को क्यों विशेष प्रिय होता है ये फूल?

भारतीय आध्यात्म में कमल के पुष्प को बहुत पवित्र, पूजनीय और सुंदरता, सद्भावना व शांति-समृद्धि का प्रतीक माना जाता है। यह ऐश्वर्य और सुख का सूचक है। इसीलिए कमल को पुष्पराज भी कहा जाता है। पौराणिक आख्यानिकों में भगवान विष्णु की नाभि से कमल का उत्पन्न होना और उस पर विराजमान ब्रह्माजी द्वारा सृष्टि की रचना करना कमल के महत्व को सिद्ध करता है। कमल को महालक्ष्मी, ब्रह्मा, सरस्वती आदि देवी-देवताओं ने अपना आसन बनाया है। यह लक्ष्मी व श्रीदायक है।
कमल के फूल से अनेक देवी-देवताओ की पूजा की जाती है। अनेक प्रकार के यज्ञों और अनुष्ठानों में कमल के पुष्पों को निश्चित संख्या में अर्पित करने का शास्त्रों में विधान बताया गया है। कमल का फूल कीचड़ और जल में ही पैदा होता है, लेकिन उससे निर्लिप्त रहकर, हमें पवित्र जीवन जीने की प्रेरणा देता है। मंदिर के शिखर बंद कमल के आकार के बनाए जाते हैं। पृथ्वी की आकृति भी कमल के समान बताई गई है। कुंडलिनी जागरण के लिए योगी जिन आठ चक्रों को भेदते हैं, उन्हें भी कमल दल कहते हैं। शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है–योनिवे पुष्करमर्पण यानी स्त्री के गर्भाशय के आगे के भाग को भी कमल कहा गया है, जो उत्पति से इसकी समधर्मिता को सिद्धि करता है। बौद्ध धर्म में ललिता विस्तार ग्रंथ में कमल को अष्टमंगल माना गया है। इस प्रकार देखें तो कमल के इतने विशिष्ट अर्थ हैं कि इसे भारतीय संस्कृति का विश्वकोश मानना गलत न होगा।

Tuesday, April 26, 2016

पूजा में शंख को रखाना बहुत ही शुभ माना गया है।

हिन्दू धर्म में शंख को बहुत ही शुभ माना गया है। इसका कारण यह है कि माता लक्ष्मी और भगवान विष्णु दोनों ही अपने हाथों में शंख धारण करते हैं। इसलिए एक आम धारणा है कि, जिस घर में शंख होता है उस घर में सुख-समृद्धि आती है। पूजा-पाठ में भी शंख बजाने का नियम है। यदि इसके धार्मिक पहलू को दरकिनार भी कर दें तो भी घर में शंख रखने और इसे नियमित तौर पर बजाने के ऐसे कई फायदे हैं, जो सीधे तौर पर हमारी सेहत से जुड़े हैं।
1. शरीर का विकास होता है-माना जाता है कि पूजा-पाठ में शंख बजाने से शरीर और आसपास का वातावरण शुद्घ होता है। सतोगुण में वृद्धि हाेती है जाे कि मनुष्य के विकास में सहायक है।
2. सकारात्मक विचार पैदा होते हैं-कहा जाता है कि जहां तक शंख की आवाज जाती है, इसे सुनकर लोगों के मन में सकारात्मक विचार पैदा होते हैं और वे पूजा-अर्चना के लिए प्रेरित होते हैं।
3. लक्ष्मी का वास-माता लक्ष्मी और भगवान विष्णु, दोनों ही अपने हाथों में शंख को धारण करते हैं। इसलिए माना जाता है कि शंख को रख्रने से घर में स्थिर लक्ष्मी का निवास होता है।
4. सांस के रोगो में है असरदार- शंख बजाने से फेफड़े का व्यायाम होता है और स्वास्थ्य पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है। खासतौर पर सांस के रोगी के लिए यह बेहद असरदार माना गया है। आयुर्वेद के अनुसार शंख बजाने से दमा, लिवर और इन्फ़्लुएन्ज़ा जैसी बीमारियां भी दूर होती हैं।
5. जल के फायदे- शंख में जल रखने और इसे छिड़कने से वातावरण शुद्ध होता है। इसमें कैल्श‍ियम और फॉस्फोरस के गुण मौजूद होते हैं। लिहाजा शंख में रखे पानी के सेवन से हड्डियां मजबूत होती हैं।

Monday, April 25, 2016

पूजन में कर्पूर क्यों जलाते हैं?


देवी-देवताओं के पूजन में किए जाने वाले सभी कर्मों का संबंध धर्म के साथ ही हमारे स्वास्थ्य से भी है। पूजन में आरती करना महत्वपूर्ण कर्म है और आरती में कर्पूर भी अनिवार्य रूप से जलाया जाता है। कर्पूर जलाने की परंपरा के पीछे भी कई कारण मौजूद हैं। कर्पूर तीव्र उड़नशील वानस्पतिक द्रव्य है। यह सफेद रंग का होता है। इसमें तीखी गंध होती है।
कर्पूर जलाने का धार्मिक महत्व
कर्पूर जलाने की परंपरा प्राचीन समय से चली आ रही है। शास्त्रों के अनुसार देवी-देवताओं के समक्ष कर्पूर जलाने से अक्षय पुण्य प्राप्त होता है। जिस घर में नियमित रूप से कर्पूर जलाया जाता है, वहां पितृदोष या किसी भी प्रकार के ग्रह दोषों का असर नहीं होता है। कर्पूर जलाने से वातावरण पवित्र और सुगंधित होता है। ऐसे वातावरण से भगवान अति प्रसन्न होते हैं। कर्पूर के प्रभाव से घर का वातावरण सकारात्मक ऊर्जा से भर जाता है, इसकी महक से हमारे विचारों में भी सकारात्मकता आती है।
कर्पूर जलाने का वैज्ञानिक महत्व
कर्पूर जलाने का वैज्ञानिक महत्व भी है। कर्पूर एक सुगंधित वस्तु है और इसे जलने पर कर्पूर की महक वातावरण में तेजी से फैल जाती है। इसकी महक से वातावरण में मौजूद कई सूक्ष्म जीव नष्ट हो जाते हैं, जो कि हमारे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होते हैं। कर्पूर जलाने से वातावरण की शुद्ध हो जाता है।
यदि आप रात को सोने से पहले कर्पूर जलाकर सोएंगे तो इससे चमत्कारी रूप से स्वास्थ्य लाभ प्राप्त होते हैं। ऐसा करने पर अनिद्रा की शिकायत दूर हो जाती है, बुरे सपने नहीं आते हैं।
कर्पूर जलाते समय इस मंत्र का जप करें...

कर्पूरगौरम् करुणावतारम्, संसारसारम् भुजगेन्द्रहारम्।
सदा वसन्तम् हृदयारविन्दे, भवम् भवानि सहितम् नमामि।।
आरती में जब भी कर्पूर जलाया जाता है तो इस मंत्र का जप किया जाता है। मूल रूप से यह मंत्र भगवान शंकर की आराधना के लिए है। इसका अर्थ इस प्रकार है...
कर्पूरगौरम् यानी जो कर्पूर के समान गौर वर्ण वाले हैं
करुणावतारम् यानी जो करुणा के साक्षात् अवतार हैं
संसारसारम् यानी जो इस समस्त संसार के एकमात्र सार हैं
भुजगेन्द्रहारम् यानी जो भुजंग (सांप) की माला धारण किए रहते हैं
सदा वसन्तम् हृदयारविन्दे, भवम् भवानि सहितम् नमामि।। यानी जो माता पार्वती के साथ ही, सभी भक्तों के कमल रूपी हृदय में सदैव निवास करते हैं, उन महादेव की हम वंदना करते हैं, आराधना करते हैं, उन्हें नमन करते हैं।
http://religion.bhaskar.com/news/AK-worship-method-about-kapur-4871572-PHO.html

Saturday, April 23, 2016

देवी-देवताओं को चावल क्यों चढ़ाते हैं?


चावल को अक्षत भी कहा जाता है और अक्षत का अर्थ होता है जो टूटा न हो। इसका रंग सफेद होता है। पूजन में अक्षत का उपयोग अनिवार्य है। किसी भी पूजन के समय गुलाल, हल्दी, अबीर और कुंकुम अर्पित करने के बाद अक्षत चढ़ाए जाते हैं। अक्षत न हो तो पूजा पूर्ण नहीं मानी जाती।
पूजन कर्म में चावल का काफी महत्व रहता है। देवी-देवता को तो इसे समर्पित किया जाता है, साथ ही किसी व्यक्ति को जब तिलक लगाया जाता है, तब भी अक्षत का उपयोग किया जाता है। भोजन में भी चावल का उपयोग किया जाता है।
कुंकुम, गुलाल, अबीर और हल्दी की तरह चावल में कोई विशिष्टï सुगंध नहीं होती और न ही इसका विशेष रंग होता है। अत: मन में यह जिज्ञासा उठती है कि पूजन में अक्षत का उपयोग क्यों किया जाता है? दरअसल अक्षत पूर्णता का प्रतीक है। अर्थात यह टूटा हुआ नहीं होता है। अत: पूजा में अक्षत चढ़ाने का अभिप्राय यह है कि हमारा पूजन अक्षत की तरह पूर्ण हो।
अन्न में श्रेष्ठ होने के कारण भगवान को चढ़ाते समय यह भाव रहता है कि जो कुछ भी अन्न हमें प्राप्त होता है वह भगवान की कृपा से ही मिलता है। अत: हमारे अंदर यह भावना भी बनी रहे। इसका सफेद रंग शांति का प्रतीक है। अत: हमारे प्रत्येक कार्य की पूर्णता ऐसी हो कि उसका फल हमें शांति प्रदान करे। इसीलिए पूजन में अक्षत एक अनिवार्य सामग्री है ताकि ये भाव हमारे अंदर हमेशा बने रहें।
भगवान को चावल चढ़ाते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि चावल टूटे हुए न हों। अक्षत पूर्णता का प्रतीक है अत: सभी चावल अखंडित होने चाहिए। चावल साफ एवं स्वच्छ होने चाहिए। शिवलिंग पर चावल चढ़ाने से शिवजी अतिप्रसन्न होते हैं और भक्तों अखंडित चावल की तरह अखंडित धन, मान-सम्मान प्रदान करते हैं। श्रद्धालुओं को जीवनभर धन-धान्य की कमी नहीं होती हैं।
पूजन के समय अक्षत इस मंत्र के साथ भगवान को समर्पित किए जाते हैं-

अक्षताश्च सुरश्रेष्ठकुङ्कमाक्ता: सुशोभिता:।
मया निवेदिता भक्त्या: गृहाण परमेश्वर॥

इस मंत्र का अर्थ है कि हे पूजा! कुंकुम के रंग से सुशोभित यह अक्षत आपको समर्पित कर रहा हूं, कृपया आप इसे स्वीकार करें। इसका यही भाव है कि अन्न में अक्षत यानि चावल को श्रेष्ठ माना जाता है। इसे देवान्न भी कहा गया है। अर्थात देवताओं का प्रिय अन्न है चावल। अत: इसे सुगंधित द्रव्य कुंकुम के साथ आपको अर्पित कर रहे हैं। इसे ग्रहण कर आप भक्त की भावना को स्वीकार करें।
http://religion.bhaskar.com/news/AK-worship-tradition-about-rice-4871574-PHO.html

Friday, April 22, 2016

हनुमानजी को सिंदूर चढ़ाने की परंपरा क्यों?

अद्भुत रामायण में एक कथा उल्लेख मिलता है, जिसमें मंगलवार की सुबह जब हनुमानजी को भूख लगी तो वे माता जानकी के पास कुछ खाने के लिए मांगने पहुंचे। सीता माता की मांग में सिंदूर देखकर हनुमानजी ने उनसे आश्चर्य से पूछा –माता मांग में आपने यह कौन सा लाल द्रव्य लगाया है। इस पर सीता माता ने कहा- पुत्र यह सुहागिन स्त्रियों का प्रतीक, मंगल सूचक, सौभाग्यवर्धक सिंदूर है, जो स्वामी के दीर्घायु के लिए जीवनपर्यंत मांग में लगाया जाता है। इससे वे मुझ पर प्रसन्न रहते हैं। हनुमानजी ने यह जानकर विचार किया कि जब अंगुली भर सिंदूर लगाने से पति की उम्र बढ़ती है, तो फिर क्यों न सारे शरीर पर इसे लगाकर अपने स्वामी भगवान श्रीराम को अजर-अमर कर दूं।
उन्होंने जैसा सोचा, वैसा ही कर दिखाया। अपने सारे शरीर पर सिंदूर पोतकर भगवान श्रीराम की सभा में पहुंच गए। उन्हें इस तरह सिंदूरी रंग में रंगा देखकर सभा में मौजूद सभी लोग हंसे, यहां तक कि भगवान राम भी उन्हें देखकर ,मुस्कुराए और बहुत प्रसन्न हुए। उनके सरल भाव पर मुग्ध होकर उन्होंने यह घोषणा की कि जो मंगलवार के दिन मेरे प्रिय हनुमान को तेल और सिंदूर चढ़ाएंगे, उनकी सारी मनोकामनाएं पूरी होंगी। इस पर माता जानकी के वचनों में हनुमानजी को बहुत विश्वास हो गया। कहा जाता है कि उसी समय से भगवान श्रीराम के प्रति हनुमानजी की भक्ति को याद करने के लिए उनके सारे शरीर चमेली के तेल में घोलकर सिंदूर लगाया जाता है। इसे चोला चढ़ाना भी कहते हैं।

Thursday, April 21, 2016

वैज्ञानिक मानते हैं, ॐ का जप करने से दूर होती हैं ये प्रॉब्लम्स

वर्तमान समय में अधिकतर लोगों की जिंदगी भाग दौड़ से भरी है। इसलिए मानसिक तनाव होना एक आम बात है। तनाव से छुटकारा पाने के लिए योगा व मेडिटेशन के साथ जप करने की सलाह दी जाती है। ऐसा माना जाता है कि तनाव से राहत पाने का यह सबसे कारगर तरीका है। तनाव के अलावा भी के उच्चारण के कई सारे फायदे हैं। की ध्वनि मानव शरीर के लिए विपरीत डेसीबल की सभी ध्वनियों को वातावरण से निष्प्रभावी बना देती है।विभिन्न ग्रहों से आने वाली बहुत घातक अल्ट्रावायलेट किरणों का प्रभाव ओम की आवाज से खत्म हो जाता है।
मतलब बिना किसी विशेष उपाय के भी सिर्फ ओम् के जप से भी अनिष्ट ग्रहों के प्रभाव को कम किया जा सकता है। का उच्चारण करने वाले के शरीर का विद्युत प्रवाह आदर्श स्तर पर पहुंच जाता है। इसके उच्चारण से इंसान को वाक् सिद्धि होती है। नींद गहरी आने लगती है। साथ ही, अनिद्रा की बीमारी से हमेशा के लिए छुटकारा मिल जाता है।मन शांत होने के साथ ही दिमाग तनाव मुक्त हो जाता है।
http://religion.bhaskar.com/news/JM-JMJ-GYVG-benefits-of-om-chanting-5303785-NOR.html

Wednesday, April 20, 2016

व्रत-उपवास में इन कारणों से अन्न नहीं खाते हैं



हिंदू मान्यताओं के अनुसार व्रत-उपवास भी कई तरह के होते हैं, लेकिन आजकल अधिकांश लोग खाने से संबंधित व्रत करते हैं। इस तरह के उपवास में अन्न जैसे गेहूं, चावल, दाल, विभिन्न सब्जियां आदि से परहेज किया जाता है। ऐसे समय में केवल फल आदि लिए जाते हैं। भगवान की भक्ति में अन्न आदि क्यों नहीं खाए जाते हैं, इसके पीछे धार्मिक और वैज्ञानिक दोनों की कारण मौजूद हैं।
उपवास के दौरान अन्न न खाने के पीछे धार्मिक कारण यह है कि अन्न पेट भरता है, हमें संतुष्टि प्रदान करता है। शरीर के लिए कभी-कभी भूखा रहना भी फायदेमंद होता है। उपवास करने पर हम अन्नादि नहीं खाते हैं जिससे हमारे डायजेस्टिव सिस्टम को आराम मिलता है। व्रत हमारे स्वास्थ्य के लिए बहुत फायदेमंद है, क्योंकि इस दौरान हम खान-पान के संबंध में पूरी सावधानी रखते हैं और स्वस्थ और निरोगी बने रहते हैं।
इससे कब्ज, गैस, अजीर्ण, सिरदर्द, बुखार आदि रोगों से रक्षा होती है। आध्यत्मिक शक्ति बढ़ती है। ज्ञान, विचार, पवित्रता बुद्धि का विकास होता है। इसी कारण उपवास व्रत को पूजा पद्धति को शामिल किया गया है। व्रत में सात्विक व मादकता से रहित फलाहार हमारे शरीर को सभी आवश्यक पौष्टिक तत्व देता है और बीमारियों से रक्षा करता है।
अन्न में पौष्टिक तत्व होते है साथ ही इसमें कई ऐसे तत्व होते हैं जो आलसी बनाते हैं या वासना जगाते हैं। अन्न खाने के पश्चात हमें नींद व आलस्य घेर लेते हैं और भक्ति में अधिक ध्यान नहीं लगा पाते। इसी आलस्य को दूर करने के लिए व्रत-उपवास की परंपरा शुरू की गई।
तप से हम अपने शरीर को साधते हैं और इच्छाओं का त्याग करते हैं ताकि हमारा मन भगवान में लग सके। हमारा पूरा ध्यान भगवान की ओर ही रहे। खाना खाने के बाद हमारा मन इधर-उधर बहुत जल्दी भटक जाता है। जबकि फल का सेवन करने से हमारे शरीर को आवश्यक ऊर्जा प्राप्त हो जाती है और हम अच्छे से तप कर पाते हैं।
 

Tuesday, April 19, 2016

नई गाड़ी की पूजा करने की परंपरा के पीछे ये हैं कारण


हमारे देश में हर कार्य से जुड़ी अनेकों परंपराएं हैं ऐसी ही एक परंपरा है। घर में नए वाहन को लाने पर उसकी पूजा करने की।कुछ लोगों के वाहन,बाइक, कार या कोई हैवी व्हीकल हमेशा खराब रहता है। वे उसे बार बार ठीक करवाते हैं,उस पर पैसे खर्च करते हैं फिर भी उनका वाहन साथ नहीं देता।ज्योतिष के नजरिए से देखें तो निश्चित ही कुंडली में शनि और मंगल अशुभ प्रभाव दे रहे हैं।शनि और मंगल के अशुभ प्रभाव से ही आपका वाहन हमेशा खराब रहता है।

इसलिए अशुभ ग्रह भी शुभ प्रभाव देने लगे इस भावना के साथ घर में वाहन लेकर आते वक्त मुहूर्त का ध्यान तो रखा ही जाता है। साथ ही, उसका विधि-विधान से पूजन कर मिठाई भी बांटी जाती है, लेकिन बहुत ही कम लोग जानते हैं कि इसके पीछे कारण क्या है। दरअसल, हमारे शास्त्रों के अनुसार वाहन को भगवान गरुड़ का स्वरूप माना जाता है।गरुड़ का रूप मानकर जब शुभ मुहूर्त में कोई वाहन घर में लाया जाता है और विधि से उसका पूजन किया जाता है तो ऐसा माना जाता है कि वाहन से किसी तरह की कोई दुर्घटना नहीं होती और वो सुरक्षित रहता है। इसलिए हमारे यहां घर में लाए जाने वाले नए वाहन का पूजन जरूरी माना गया है।
http://religion.bhaskar.com/news/JM-JMJ-SAS-hindu-customs-and-traditions-5302781-NOR.html

Monday, April 18, 2016

क्यों करते हैं मंदिर में परिक्रमा ?

मंदिर में पूजा व आराधना के बाद हम मंदिर या प्रतिमा के चारो ओर परिक्रमा करते हैं। सामान्यत: देवी-देवताओं की परिक्रमा सभी करते हैं, लेकिन अधिकांश लोग यह नहीं जानते कि परिक्रमा क्यों की जाती है।
इस संबंध धर्म ग्रंथों में बताया गया है कि भगवान की परिक्रमा करने से अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है। ऐसा करने से हमारे पाप खत्म होते है। देवी-देवताओं की कृपा से पैसों की परेशानी से मुक्ति मिलती है और घर-परिवार में प्रेम बना रहता है।
आरती, पूजन और मंत्र जप के असर से मंदिर क्षेत्र में हमेशा सकारात्मक ऊर्जा पैदा होती रहती है। जब परिक्रमा करते है तो मंदिर की सकारात्मक ऊर्जा हमें अधिक मात्रा में मिलती है और इसी वजह से श्रद्धालुओं को शांति और सुख का अनुभव होता है। मंदिर से प्राप्त होने वाली सकारात्मक ऊर्जा व दैवीय शक्ति हमें चिंताओं से मुक्त करती है। हमारा मन भगवान की भक्ति में रम जाता है।
परिक्रमा के माध्यम से हम दैवीय शक्ति ग्रहण कर पाते हैं, इसी वजह से परिक्रमा की परंपरा बनाई गई है। जिससे भक्तों की सोच भी सकारात्मक बनती है और बुरे विचारों से मुक्ति मिलती है। प्रतिमा की परिक्रमा करने से हमारे मन को भटकाने वाले विचार खत्म हो जाते हैं और शरीर ऊर्जावान होता है। कार्यों में सफलता मिलती है।

Saturday, April 16, 2016

8 से नवरात्र क्या आप जानते हैं इससे जुड़ी इन परंपराओं के कारण


हिंदू धर्म में नवरात्र के दौरान कन्या पूजन की विशेष परंपरा है। दरअसल, इसका धार्मिक कारण ये है कि कुंवारी कन्याएं माता के समान ही पवित्र और पूजनीय होती हैं। दो वर्ष से लेकर दस वर्ष की कन्याएं साक्षात माता का स्वरूप मानी जाती हैं। यही कारण है कि इसी उम्र की कन्याओं का पैर पूजन कर भोजन कराया जाता है।
माना जाता है कि हवन, जप और दान से देवी इतनी प्रसन्न नहीं होतीं, जितनी कन्या पूजन से। ऐसा कहा जाता है कि विधिवत, सम्मानपूर्वक कन्या पूजन से व्यक्ति के दिल से डर दूर हो जाता है। साथ ही उसके रास्ते में आने वाली सभी परेशानियां दूर हो जाती हैं। उस पर माता की कृपा से कोई संकट नहीं आता।
ऐसे करें कन्या पूजन
नवरात्र में मुख्य रूप से दो से दस वर्ष की कन्याओं के पैरों के पूजन का विशेष महत्व बताया गया है। शास्त्रों में माना गया है कि एक वर्ष या उससे छोटी कन्याओं की पूजा नहीं करनी चाहिए। एक वर्ष से छोटी कन्याओं का पूजन, इसलिए नहीं करना चाहिए, क्योंकि वह प्रसाद नहीं खा सकतीं और उन्हें प्रसाद आदि के स्वाद का ज्ञान नहीं होता। पूजन के दिन कन्याओं पर जल छिड़कर पूजन कर भोजन कराना व भोजन के बाद उनके पैर छूकर यथाशक्ति दान देना चाहिए।
आयु अनुसार माना गया है कन्याओं का रूप
नवरात्र में सभी तिथियों को एक-एक और अष्टमी या नवमी को नौ कन्याओं की पूजा होती है।
दो वर्ष की कन्या (कुमारी) के पूजन से दुख और दरिद्रता मां दूर करती हैं। तीन वर्ष की कन्या त्रिमूर्ति रूप में मानी जाती है। त्रिमूर्ति कन्या के पूजन से धन-धान्य आता है और परिवार में सुख-समृद्धि आती है।चार वर्ष की कन्या को कल्याणी माना जाता है। इसकी पूजा से परिवार का कल्याण होता है। जबकि पांच वर्ष की कन्या रोहिणी कहलाती है। रोहिणी को पूजने से व्यक्ति रोगमुक्त हो जाता है।
छह वर्ष की कन्या को कालिका रूप कहा गया है। कालिका रूप से विद्या, विजय, राजयोग की प्राप्ति होती है। सात वर्ष की कन्या का रूप चंडिका का है। चंडिका रूप का पूजन करने से ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है।आठ वर्ष की कन्या शाम्‍भवी कहलाती है। इसका पूजन करने से वाद-विवाद में विजय प्राप्त होती है। नौ वर्ष की कन्या दुर्गा कहलाती है। इसका पूजन करने से शत्रुओं का नाश होता है तथा असाध्य कार्यपूर्ण होते हैं।दस वर्ष की कन्या सुभद्रा कहलाती है। सुभद्रा अपने की सारी मनोकामनाएं पूरी करती है।
नवरात्र में क्यों जलाई जाती है अखंड ज्योति?
नवरात्र के नौ दिन माता के सामने अखंड ज्योति प्रज्जवलित की जाती है। अखंड ज्योति पूरे नौ दिनों तक अखंड रहनी चाहिए यानी जलती रहनी चाहिए। यह अखंड ज्योति माता के प्रति हमारी अखंड आस्था का प्रतीक मानी जाती है। यह ज्योति इसलिए भी जलाई जाती है कि जिस प्रकार विपरीत परिस्थितियों में भी छोटा का दीपक अपनी लौ से अंधेरे को दूर भगाता रहता है। उसी प्रकार हम भी माता की आस्था का सहारा लेकर अपने जीवन के अंधकार को दूर कर सकते हैं। मान्यता के अनुसार दीपक या अग्नि के समक्ष किए गए जप का साधक को हजार गुना फल प्राप्त होता है।
कहा जाता है
दीपम घृत युतम दक्षे,तेल युत: वामत:
यानी घी युक्त ज्योति देवी के दाहिनी ओर व तेल युक्त ज्योति देवी के बाई ओर रखनी चाहिए। अखंड ज्योति पूरे नौ दिनों तक अखंड रहनी चाहिए। इसके लिए एक छोटे दीपक का उपयोग करें। जब अखंड ज्योति में घी डालना हो, बत्ती ठीक करनी हो तो या गुल गिराना हो तो छोटा दीपक अखंड दीपक की लौ से जलाकर अलग रख लें। यदि अखंड दीपक को ठीक करते हुए ज्योति बुझ जाती है तो छोटे दीपक की लौ से अखंड ज्योति पुन: जलाई जा सकती है छोटे दीपक की लौ को घी में डूबोकर ही बुझाएं।
 नवरात्र में ही क्यों की जाती है तांत्रिक साधनाएं
नवरात्र को देवी आराधना का सबसे अच्छा समय माना जाता है। चैत्र और अश्विन महीने में पड़ने वाली नवरात्र का हिंदू त्योहारों में बड़ा महत्व है।अश्विन मास की नवरात्रि को शारदीय नवरात्र भी कहा जाता है। इस नवरात्र को तांत्रिक अनुष्ठानों के लिए सर्वश्रेष्ठ माना जाता है, क्योंकि इसे सिद्धि के लिए विशेष लाभदायी माना गया है।
इस नवरात्र में की गई पूजा, जप-तप साधना, यंत्र-सिद्धियां, तांत्रिक अनुष्ठान आदि पूर्ण रूप से सफल एवं प्रभावशाली होते हैं।चूंकि मां स्वयं आदि शक्ति का रूप हैं और नवरात्रों में स्वयं मूर्तिमान होकर उपस्थित रहती हैं उपासकों की उपासना का उचित फल प्रदान करती हैं। सृष्टि के पांच मुख्य तत्वों में देवी को भूमि तत्व की अधिपति माना जाता है। तंत्र-मंत्र की सारी सिद्धियां इस धरती पर मौजूद सकारात्मक और नकारात्मक ऊर्जा से जुड़ी होती हैं।
नवरात्र के नौ दिनों में चूंकि चारों ओर पूजा और मंत्रों का उच्चारण होता है, इससे नकारात्मक ऊर्जा कमजोर पड़ जाती है। इन नौ दिनों में सकारात्मक ऊर्जा अपने पूरे प्रभाव में होती है। इस कारण जो भी काम किया जाता है उसमें आम दिनों की अपेक्षा बहुत जल्दी सफलता मिलती है। तंत्र-मंत्र के साथ भी यही बात लागू होती है। तंत्र की सिद्धि आम दिनों के मुकाबले बहुत आसानी से और कम समय में मिलती है।
http://religion.bhaskar.com/news/JM-JMJ-SAS-ritual-of-navratri-5293315-PHO.html