Monday, February 29, 2016

मंदिर नहीं जाने वालों को करना चाहिए ये 1 काम


मंदिर का वातावरण भी मन को लुभाने वाला होता है, वहां जाने से मन को शांति मिलती है। इन्हीं कारणों से लोग मंदिर जाने की इच्छा रखते हैं लेकिन अधिकांश समय अभाव या अन्य किसी कारण से मंदिर नहीं जा पाते। यदि कोई व्यक्ति रोजाना भगवान के दर्शन करने नहीं जा पाता है तो ऐसे में जहां भी किसी मंदिर का शिखर दिखाई दे वहां से भगवान को याद करके शिखर दर्शन कर लेना चाहिए।
शास्त्रों के अनुसार मंदिर के शिखर दर्शन को भी भगवान के दर्शन के बराबर ही पुण्य देने वाला बताया गया है। मंदिर के का शिखर भी उतना ही महत्व है जितना भगवान की प्रतिमा या मूर्ति का होता है। धर्म ग्रथों में कहा गया है कि शिखर दर्शनम् पाप नाशम्। अर्थात शिखर के दर्शन करने से भी हमारे सभी पापों का नाश हो जाता है। इसलिए यदि आपके पास मंदिर जाने का वक्त नहीं है तो आप शिखर के दर्शन कर भी यदि अपने इष्ट को याद करें तो आपको मानसिक शांति मिलती है।
http://religion.bhaskar.com/news/JM-JMJ-SAS-what-is-the-importance-of-temple-peak-5258899-NOR.html

Friday, February 26, 2016

ज्ञान पाने के लिए ये एक सूत्र हमेशा याद रखना चाहिए

किसी समय की बात है महर्षि आयोदधौम्य अपनी तपस्या और उदारता के लिए बहुत प्रसिद्ध थे। वे वैसे तो बहुत अनुशासनप्रिय और कठोर थे, लेकिन भीतर से शिष्यों पर असीम स्नेह रखते थे। वे अपने शिष्यों को बहुत सुयोग्य बनाना चाहते थे। इसलिए कभी-कभी उनके प्रति कठोर हो जाया करते थे। महर्षि के शिष्यों में से एक था-उपमन्यु। गुरुदेव ने उसे वन में गाय चराने का काम दे रखा था। एक दिन गुरुदेव ने पूछा- बेटा उपमन्यु, तुम आजकल भोजन का क्या करते हो। उपमन्यु बोला- भगवन्, मैं भिक्षा मांगकर अपना काम चलाता हूं। महर्षि ने कहा बेटा, ब्रह्मचारी को इस तरह भिक्षा का अन्न नहीं खाना चाहिए। भिक्षा में जो कुछ मिले, वह गुरु को देना चाहिए। उसमें से यदि गुरु कुछ दें, तो उसे ग्रहण करना चाहिए।

उपमन्यु ने महर्षि की बात मानकर भिक्षा का सारा अन्न गुरु को देना शुरू किया, लेकिन वे उसमें से कुछ भी उपमन्यु को न देते। तब उसने अपनी भूख शांत करने के लिए दुबारा भिक्षा मांगनी आरंभ कर दी। गुरुदेव ने इस पर भी आपत्ति ली। उन्होंने कहा इससे गृहस्थों पर अधिक भार पड़ेगा और दूसरे भिक्षा मांगने वालों को भी संकोच होगा। थोड़े दिनों बाद महर्षि ने फिर पूछा, तो उपमन्यु ने बताया कि मैं गायों का दूध पी लेता हूं। तब महर्षि ने तर्क दिया कि गायें तो मेरी हैं और मुझसे बिना पूछे तुम्हें दूध नहीं पीना चाहिए। तब उपमन्यु ने बछड़ों के मुख से गिरने वाले फेन से अपनी भूख मिटाना शुरू किया, लेकिन महर्षि ने वह भी बंद करवा दिया।
उपमन्यु उपवास करने लगा। एक दिन भूख के असहाय होने पर उसने आक के पत्ते खा लिए, जिसके विष से वह अंधा होकर जल रहित कुंए में गिर गया। महर्षि ने उसे जब ऐसी अवस्था में पाया, तो ऋग्वेद के मंत्रों से अश्विनी कुमारों की स्तुति करने को कहा। उपमन्यु द्वारा श्रद्धापूर्वक स्मरण करने पर वे प्रकट हुए और उसकी नेत्र ज्योति लौटाते हुए उसे एक पूआ खाने को दिया। जिसे गुरु की आज्ञा के बिना खाना उपमन्यु ने स्वीकार नहीं किया। इस गुरुभक्ति से प्रसन्न होकर अश्विनीकुमारों ने उपमन्यु को समस्त विद्याएं बिना पढ़े आ जाने का आशीर्वाद दिया।
सीख: 1.गुरु की आज्ञाओं का पालन करने वाले शिष्य को ही ज्ञान का दुर्लभ मोती मिलता है।
2.
ज्ञान ही वह मोती है जिसकी चमक कभी मंद नहीं होती और जिसके बल पर सभी तरह की संपन्नता को आसानी से प्राप्त किया जा सकता है।

Thursday, February 25, 2016

शनिवार को क्यों किया जाता है पीपल का पूजन?

भारतीय संस्कृति में पीपल को देववृक्ष माना गया है, पीपल के पेड़ प्राचीन काल से ही भारतीय जनमानस में विशेष रूप से पूजनीय रहा है। कहते हैं कि पीपल के दर्शन-पूजन से दीर्घायु व समृद्धि मिलती है, लेकिन क्या आप जानते हैं कि शनिवार को पीपल की पूजा का शास्त्रों में विशेष महत्व क्यों है?
दरअसल ऐसा माना गया है कि हर शनिवार पीपल की सेवा करने से शनिदेव प्रसन्न होते हैं। इस दिन पीपल वृक्ष के पूजन और सात परिक्रमा करने से शनि की पीड़ा का शमन होता है। अथर्ववेद के उपवेद आयुर्वेद में पीपल के औषधीय गुणों को अनेक असाध्य रोगों में उपयोगी बताया गया है।
शनिवार की अमावस्या में पीपल के पूजन से शनि के अशुभ प्रभाव से मुक्ति मिलती है। सावन के महीने में अमावस्या खत्म होने पर पीपल वृक्ष के नीचे शनिवार के दिन हनुमान की पूजा करने से बडे संकट से मुक्ति मिल जाती है। पीपल का वृक्ष ब्रह्मस्थान है। इससे सात्विकता बढ़ती है। इसलिए पीपल के पेड़ की शनिवार के दिन पूजा करना चाहिए ।

Wednesday, February 24, 2016

शैव और वैष्णव क्या है?


श्रीराम नवमी, श्रीकृष्ण जन्माष्टमी और एकादशी आदि पर्व पर शैव व स्मार्त या वैष्णव शब्द सुने जाते हैं। अक्सर ऐसा होता है कि विशेषकर ये दो पर्व दो दिन मनाए जाते हैं। पंचांग में उल्लेख होता है शैव जन्माष्टमी और स्मार्त जन्माष्टमी। शैव का अर्थ है शिव की परंपरा या शिव के मानने वाले उपासक। जो शिव पूजक हैं, वे शैव कहलाते हैं। ये लोग जिस दिन किसी पर्व को मनाते हैं वह शैव कहलाते हैं, जबकि स्मार्त वैष्णवों से संबंद्ध है।
वैष्णवों में आचार की दृष्टि से दो भेद हैं स्मार्त और भागवत, जो स्मृतियों में दी गई विधि आचार की व्यवस्था का पालन करते हैं, वे स्मार्त कहलाते हैं। इस अर्थ में स्मार्त वैष्णवों की शाखा है, जबकि शैव शिव उपासकों की। शैव और स्मार्त के आराध्य देव और उपासना पद्धति कई स्तरों पर मिलती जुलती है तो अनेक स्तरों पर पूरी तरह अलग है। उत्तर भारत में संतों के प्रयास से शैव व वैष्णवों के बीच एकता के प्रयास सफल हुए, लेकिन दक्षिण भारत में अभी भी दोनो मतावलंबी बंटे हुए हैं। दक्षिण के शिवाकांची और विष्णुकांची नगर इसके प्रतीक हैं।
http://religion.bhaskar.com/news/JM-JMJ-SAS-shiva-and-vaishnava-5053489-NOR.html
 

Tuesday, February 23, 2016

मकान की नींव में सर्प और कलश क्यों गाड़ा जाता है?


ऐसा माना जाता है कि जमीन के नीचे पाताल लोक है और इसके स्वामी शेषनाग हैं। पौराणिक ग्रंथों में शेषनाग के फण पर पृथ्वी टिकी होने का उल्लेख मिलता है।

शेषं चाकल्पयद्देवमनन्तं विश्वरूपिणम्।
यो धारयति भूतानि धरां चेमां सपर्वताम्।।

इन परमदेव ने विश्वरूप अनंत नामक देवस्वरूप शेषनाग को पैदा किया, जो पहाड़ों सहित सारी पृथ्वी को धारण किए है। उल्लेखनीय है कि हजार फणों वाले शेषनाग सभी नागों के राजा हैं। भगवान की शय्या बनकर सुख पहुंचाने वाले, उनके अनन्य भक्त हैं। बहुत बार भगवान के साथ-साथ अवतार लेकर उनकी लीला में भी साथ होते हैं। श्रीमद्भागवत के 10 वे अध्याय के 29 वें श्लोक में भगवान कृष्ण ने कहा है- अनन्तश्चास्मि नागानां यानी मैं नागों में शेषनाग हूं।
नींव पूजन का पूरा कर्मकांड इस मनोवैज्ञानिक विश्वास पर आधारित है कि जैसे शेषनाग अपने फण पर पूरी पृथ्वी को धारण किए हुए हैं, ठीक उसी तरह मेरे इस घर की नींव भी प्रतिष्ठित किए हुए चांदी के नाग के फण पर पूरी मजबूती के साथ स्थापित रहे। शेषनाग क्षीरसागर में रहते हैं। इसलिए पूजन के कलश में दूध, दही, घी डालकर मंत्रों से आह्वान पर शेषनाग को बुलाया जाता है, ताकि वे घर की रक्षा करें। विष्णुरूपी कलश में लक्ष्मी स्वरूप सिक्का डालकर फूल और दूध पूजा में चढ़ाया जाता है, जो नागों को सबसे ज्यादा प्रिय है। भगवान शिवजी के आभूषण तो नाग हैं ही। लक्ष्मण और बलराम भी शेषावतार माने जाते हैं। इसी विश्वास से यह प्रथा जारी है।
http://religion.bhaskar.com/news/JM-JMJ-SAS-snake-in-the-foundation-of-the-house-5065679-NOR.html
 

Saturday, February 20, 2016

गायत्री मंत्र की सबसे अधिक मान्यता क्यों?


ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
भावार्थ:- उस प्राणस्वरूप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अन्तःकरण में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करे।
गायत्री भारतीय संस्कृति का सनातन और अनादि मंत्र है। पुराणों में कहा गया है कि परम पिता ब्रह्मा को आकाशवाणी से गायत्री मंत्र मिला था। सृष्टि निर्माण की शक्ति उन्हें इसी मंत्र की साधना से मिली थी। गायत्री की व्याख्या के रूप में ही ब्रह्माजी ने चार वेद रचे। इसलिए गायत्री को वेदमाता कहते हैं। शास्त्रकार इसे वेदों का सार कहते हैं- सर्ववेदानां गायत्री सारमुच्यते।

गायत्री मंत्र के संबंध में कहा गया है
नास्ति गंगासमं तीर्थ न देव: केशवात पर:।
गायत्र्यास्तु परं जप्यं न भूतो न भविष्यति।।

गंगा के समान कोई तीर्थ नहीं है, कृष्ण के समान कोई देव नहीं है, गायत्री से श्रेष्ठ जप करने योग्य कोई मंत्र न हुआ है, न होगा। देवी भागवत में कहा गया है कि नृसिंह, सूर्य, वराह, तांत्रिक और वैदिक मंत्रों का अनुष्ठान गायत्री मंत्र जप किए बिना असफल हो जाता है। गीता में भगवान कृष्ण ने खुद कहा है गायत्री छंद समाहम यानी मंत्रों में मैं गायत्री मंत्र हूं। इसके मंत्रोच्चार से उन देवों से संबंधित शरीरस्थ नाड़ियों में प्राणशक्ति बहने लगती है और ब्लड सर्कुलेशन तेज हो जाता है। जिससे शरीर के सारे रोग व परेशानियां जलकर खत्म हो जाती हैं।
शास्त्रों में कहा गया है कि गायत्री मंत्र का श्रद्धा से विधि के अनुसार जप करने से शारीरिक, भौतिक और आध्यात्मिक बाधाओं से मुक्ति मिलती है। जीवन में नई शक्ति और आशाओं का संचार होता है। बुद्धि, आत्मबल, नम्रता, संयम, प्रेम और शांति जैसे गुणों में बढ़ोत्तरी होती है। महाभारत में एक प्रसंग है शैय्या पर पड़े भीष्म पितामह युधिष्ठिर को समझाते हैं कि जो व्यक्ति गायत्री मंत्र का जप करता है, उनको धन, पुत्र, घर आदि भौतिक चीजें मिलती हैं। दुष्ट, राक्षस, अग्नि, सांप, हवा, पानी आदि किसी का डर नहीं रहता। यह अकाल मौत और सभी तरह के क्लेशों को भी खत्म करता है।
http://religion.bhaskar.com/news/JM-JMJ-SAS-why-gayatri-mantra-the-most-recognized-5061697-NOR.html

Friday, February 19, 2016

हर दिन किस समय न करें कोई शुभ काम?

 
भारतीय ज्योतिष के लिए हर शुभ काम को करने से पहले मुहूर्त जरूर देखना चाहिए। ऐसा मानते हैं कि शुभ मुहूर्त में किया गया काम सफल व शुभ होता है, लेकिन हर दिन में एक समय ऐसा भी आता है जब कोई शुभ काम नहीं किया जाता। वह समय होता है राहुकाल। राहुकाल के बारे में ऐसा कहते हैं कि इस दौरान यदि कोई शुभ काम, लेन-देन, यात्रा या कोई नया काम शुरू किया जाए तो वह अशुभ फल देता है। यह बात पुरातन काल से ज्योतिषाचार्य हमें बता रहे हैं, लेकिन राहुकाल में ऐसा क्या होता है कि इसमें किए गए कार्य अशुभ या असफल होते हैं।
इसका पीछे का तर्क यह है कि ज्योतिष के अनुसार राहु को पाप ग्रह माना गया है। दिन में एक समय ऐसा आता है जब राहु का प्रभाव काफी बढ़ जाता है और उस दौरान यदि कोई भी शुभ काम किया जाए तो उस पर राहु का प्रभाव पड़ता है, जिसके कारण या तो वह कार्य अशुभ हो जाता है या उसमें असफलता हाथ लगती है। यही समय राहुकाल कहलाता है।
कब-कब होता है राहुकाल?
हर दिन एक निश्चित समय राहुकाल होता है। यह डेढ़ घंटे का होता है। वारों के हिसाब से इसका समय इस प्रकार है-

सोमवार सुबह                         07:30             से        09:00
मंगलवार दोपहर         03:00              से        04:30
बुधवार दोपहर            12:00              से        01:30
गुरुवार दोपहर              01:30              से        03:00
शुक्रवार सुबह              10:30              से        12:00
शनिवार सुबह                         09:00              से        10:30
रविवार शाम               04:30              से        06:00

http://religion.bhaskar.com/news/JM-JMJ-GYVG-rahu-kalam-timing-5173570-NOR.html

Wednesday, February 17, 2016

मृत व्यक्ति के बिस्तर दान करने की परंपरा क्यों बनाई गई?

भारत मान्यताओं और परंपराओं का देश है। हमारी कोई भी परंपरा अंधविश्वास नहीं है। लगभग हर परंपरा के पीछे कुछ तथ्य या वैज्ञानिक आधार है। किसी परिवार के सदस्य या रिश्तेदार की मौत हो जाने पर भी हमारे यहां अनेक परंपराओं का पालन किया जाता है। मृत्यु एक अटल सत्य है। जिसने जन्म लिया है उसे मृत्यु अवश्य प्राप्त होगी। इसलिए हिंदू धर्म में मृत्यु के संबंध में कई महत्वपूर्ण नियम बनाए गए हैं। ऐसा ही एक नियम है मृत व्यक्ति के बिस्तर घर में ना रखने का।

माना जाता है कि मृत व्यक्ति के बिस्तर रखने से घर में नकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह होता है। इसलिए हमारे धर्म शास्त्रों के अनुसार किसी घर में मौत होती है तो उस घर में बारह दिन का सुतक रहता है यानी बारह दिन तक घर में पूजा-पाठ भी नहीं किया जाता है। उसके बाद सुतक की शुद्धि की जाती है और मृत व्यक्ति के सभी सामान और बिस्तर भी दान कर दिए जाते हैं। इसका एक कारण यह भी है कि मृत व्यक्ति की चीजें यदि घर में रहेंगी तो रिश्तेदार उससे मोह नहीं तोड़ पाएंगे और दुखी हाेते रहेंगे। इसके पीछे वैज्ञानिक तथ्य यह है कि मृत व्यक्ति के शरीर में जो सुक्ष्मजीव होते हैं वे उसके बिस्तर पर भी होते हैं। उस बिस्तर का उपयाेग करने पर कई तरह के रोगों का सामना करना पड़ सकता है।
http://religion.bhaskar.com/news/JM-JMJ-GYVG-rituals-related-to-death-5178906-NOR.html

Tuesday, February 16, 2016

रुद्राक्ष और तुलसी की माला पहनना लाभदायक क्यों?


रुद्राक्ष, तुलसी जैसी दिव्य औषधियों की माला पहनने के पीछे वैज्ञानिक मान्यता यह है कि होंठ और जीभ का उपयोग कर मंत्र जप करने से गले की धमनियों को सामान्य से ज्यादा काम करना पड़ता है। इसके कारण कंठमाला, गलगंड आदि रोगों के होने की आशंका होती है। इनसे बचाव के लिए गले में रुद्राक्ष व तुलसी की माला पहनी जाती है। रुद्राक्ष की माला एक से लेकर चौदहमुखी रुद्राक्षों से बनाई जाती है। वैसे तो 26 दानों की माला सिर पर, 50 की गले में, 16 की बाहों में और 12 की माला मणिबंध में पहनने का विधान है। 108 दानों की माला पहनने से अश्वमेघ यज्ञ का फल मिलता है। इसे पहनने वाले को शिव लोक मिलता है, ऐसी पद्म पुराण, शिवमहापुराण आदि शास्त्रों की मान्यता है। शिवपुराण में कहा गया है
यथा च दृश्यते लोके रुद्राक्ष: फलद: शुभ:।
न तथा दृश्यन्ते अन्या च मालिका परमेश्वरि।।
विश्व में रुद्राक्ष की माला की तरह दूसरी कोई माला फल देने वाली और शुभ नहीं है।
श्रीमद् देवी भागवत में लिखा है
रुद्राक्ष धारणच्च श्रेष्ठ न किचदपि विद्यते।
विश्व में रुद्राक्ष धारण से बढ़कर कोई दूसरी चीज नहीं है। रुद्राक्ष की माला श्रद्धा से पहनने वाले इंसान की आध्यात्मिक तरक्की होती है। सांसारिक बाधाओं और दुखों से छुटकारा मिलता है। दिमाग और दिल को शक्ति मिलती है। ब्लडप्रेशर नियंत्रित रहता है। भूत-प्रेत आदि बाधाएं दूर होती हैं। मानसिक शांति मिलती है। गर्मी और ठंड से होने वाले रोग दूर होते हैं। इसलिए इतनी लाभकारी, पवित्र रुद्राक्ष की माला में भारतीय लोगों की अनन्य श्रद्धा है। तुलसी का हिंदू संस्कृति में बहुत धार्मिक महत्व है। इसमें विद्युत शक्ति होती है। यह शक्ति पहनने वाले में आकर्षण और वशीकरण शक्ति आती है।
उसकी यश, कीर्ति और सौभाग्य बढ़ता है। तुलसी की माला पहनने से बुखार, जुकाम, सिरदर्द, चमड़ी के रोगों में भी लाभ मिलता है।संक्रामक बीमारी और अकाल मौत भी नहीं होती, ऐसी धार्मिक मान्यता है। शालग्राम पुराण में कहा गया है तुलसी की माला भोजन करते समय शरीर पर होने से अनेक यज्ञों का पुण्य मिलता है। जो भी कोई तुलसी की माल पहन कर नहाता है, उसे सारी नदियों में नहाने का पुण्य मिलता है।
http://religion.bhaskar.com/news/JM-JMJ-SAS-why-wear-rudraksh-and-basil-garlands-5063866-NOR.html

Monday, February 15, 2016

खाना हमेशा सीधे हाथ से खाना चाहिए

कहते हैं खाना हमेशा सीधे हाथ से खाना चाहिए, लेकिन क्यों खाना चाहिए इसका सही कारण कम ही लोगों को पता है। दरअसल, इसका कारण सीधे हाथ का सभी धार्मिक कार्य में विशेष महत्व होना है, क्योंकि धर्म शास्त्रों के अनुसार मनुष्य शरीर का बायां भाग स्त्रियों का प्रतिनिधित्व करता है और दायां भाग पुरुषों का। इस बात की पुष्टि शिवजी के अद्र्धनारीश्वर स्वरूप से की जा सकती है। शिवजी के इस रूप में दाएं भाग में स्वयं शिवजी और बाएं भाग में माता पार्वती को दर्शाया जाता है।
हवन या यज्ञ भी हमेशा सीधे हाथ से किया जाता है। भोजन करना भी एक तरह का हवन है जो हम अपने शरीर के लिए करते हैं। दक्षिण हाथ हमेशा सकारात्मक कार्यो के लिए उपयोग किया जाता है, क्योंकि सीधे हाथ पर सूर्य नाड़ी का प्रतिनिधित्व माना जाता है। दरअसल, हमारे शरीर में मुख्य रूप से दो नाड़ियाें का प्रतिनिधित्व होता है। पहली ईडा दूसरी पिंगला जिन्हें सूर्य और चंद्र नाड़ी भी कहते हैं। इसलिए सीधे हाथ से ग्रहण करने पर भोजन जल्दी पचता है और शरीर को भरपूर ऊर्जा प्रदान करता है। जबकि इसके विपरित उल्टे हाथ से ग्रहण किए गए भोजन से शरीर को पूरा पोषण व ऊर्जा नही मिलती है। इसलिए सीधे हाथ से भोजन करना ही श्रेष्ठ माना गया है।
http://religion.bhaskar.com/news/JM-JMJ-SAS-why-eating-food-with-right-hand-5055653-NOR.html

Thursday, February 11, 2016

दीपक का इतना महत्व आखिर क्यों ?

मनुष्य के जीवन में चिह्नों और संकेतों का बहुत उपयोग है। भारतीय संस्कृति में मिट्टी के दिये में प्रज्जवलित ज्योत का बहुत महत्त्व है।
दीपक हमें अज्ञान को दूर करके पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने का संदेश देता है। दीपक अंधकार दूर करता है। मिट्टी का दीया मिट्टी से बने हुए मनुष्य शरीर का प्रतीक है और उसमें रहने वाला तेल अपनी जीवनशक्ति का प्रतीक है। मनुष्य अपनी जीवनशक्ति से मेहनत करके संसार से अंधकार दूर करके ज्ञान का प्रकाश फैलाये ऐसा संदेश दीपक हमें देता है। मंदिर में आरती करते समय दीया जलाने के पीछे यही भाव रहा है कि भगवान हमारे मन से अज्ञान रूपी अंधकार दूर करके ज्ञानरूप प्रकाश फैलायें। गहरे अंधकार से प्रभु! परम प्रकाश की ओर ले चल।
दीपावली के पर्व के निमित्त लक्ष्मीपूजन में अमावस्या की अन्धेरी रात में दीपक जलाने के पीछे भी यही उद्देश्य छिपा हुआ है। घर में तुलसी के क्यारे के पास भी दीपक जलाये जाते हैं। किसी भी नयें कार्य की शुरूआत भी दीपक जलाने से ही होती है। अच्छे संस्कारी पुत्र को भी कुल-दीपक कहा जाता है। अपने वेद और शास्त्र भी हमें यही शिक्षा देते हैं- हे परमात्मा! अंधकार से प्रकाश की ओर, मृत्यु से अमरता की ओर हमें ले चलो। ज्योत से ज्योत जगाओ इस आरती के पीछे भी यही भाव रहा है। यह है भारतीय संस्कृति की गरिमा।
http://www.hariomcare.com/2013/02/blog-post_7148.html

Wednesday, February 10, 2016

पूजा में कलश रखने का कारण और उसका महत्व


कलश में क का अर्थ है जल और लश का तात्पर्य सुशोभित करने से है यानी वह पात्र जो जल से सुशोभित होता है। हिंदू धर्म में कलश को सुख-समृद्धि, वैभव और मंगल कामनाओं का प्रतीक माना गया है। इसलिए गृहप्रवेश या किसी भी तरह का पूजन होने पर कलश स्थापित किया जाता है। कलश एक विशेष आकार का बर्तन होता है, जो चौड़ा होने के साथ ही कुछ गोलाई लिए होता है। मान्यताओं के अनुसार कलश के ऊपरी भाग में विष्णु , मध्य में शिव और तल यानी मूल में ब्रह्मा का निवास होता है। इसलिए पूजन से पहले कलश को देवी-देवता की शक्ति, तीर्थस्थान आदि का प्रतीक मानकर कलश रखा जाता है।
कलश में डाली जाती हैं ये चीजें
शास्त्रों में बिना जल के कलश को स्थापित करना अशुभ माना गया है। इसी कारण कलश में पानी, पान के पत्ते, आम के पत्ते, केसर, अक्षत, कुमकुम, दुर्वा-कुश, सुपारी, पुष्प, सूत, नारियल, अनाज आदि का उपयोग कर पूजा के लिए रखा जाता है।
कलश है इनका प्रतीक
कलश का पवित्र जल इस बात का प्रतीक है कि हमारा मन भी जल की तरह हमेशा ही स्वच्छ, निर्मल और शीतल बना रहें। हमारा मन श्रद्धा, तरलता, संवेदना और सरलता से भरा रहे। यह क्रोध, लोभ, मोह-माया और घृणा आदि से कौसों दूर रहे। कलश पर लगाया जाने वाला स्वस्तिक चिह्न हमारे जीवन की चार अवस्थाओं बाल्य, युवा, प्रौढ़ और वृद्धावस्था का प्रतीक है। कलश के ऊपर नारियल रखा जाता है जो कि श्री गणेश का प्रतीक है। सुपारी, पुष्प, दुर्वा आदि चीजें जीवन शक्ति को दर्शाती हैं।
http://religion.bhaskar.com/news/JM-JMJ-SAS-why-establishing-the-pitcher-in-worship-4915483-NOR.html


Tuesday, February 9, 2016

चार वेद में क्या वर्णन है।


वेदों को सनातन धर्म का आधार माना जाता है। यह शब्द संस्कृत भाषा के "विद्" धातु से बना है। इन्हें हिंदू धर्म का सबसे पवित्र धर्म ग्रंथ माना गया है। इनसे वैदिक संस्कृति प्रचलित हुई है। ऐसी मान्यता है कि इनके मंत्रों को परमेश्वर यानी भगवान ने प्राचीन ऋषियों को सुनाया था। इसलिए वेदों को श्रुति भी कहा जाता है।
वेद प्राचीन भारत के वैदिक काल की वाचिक परंपरा की सबसे अच्छी रचना है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी पिछले चार-पांच हज़ार वर्षों से चली आ रही है।
वेदों के मुख्य रूप से चार प्रकार के हैं
1.
ऋग्वेद
2.
यजुर्वेद
3.
सामवेद
4.
अथर्ववेद
ऋग्वेद- वेदों में सर्वप्रथम ऋग्वेद का निर्माण हुआ। यह पद्यात्मक है यानी काव्य रूप में है। ऋग्वेद को मंडल बांटा गया है। इसके मंडल में 10 1028 सूक्त हैं और 11 हजार मंत्र हैं। इस वेद की 5 शाखाएं हैं - शाकल्प, वास्कल, अश्वलायन, शांखायन, मंडूकायन । ऋग्वेद के दसवें मंडल में औषधि सूक्त यानी दवाओं का जिक्र मिलता है। इसे अर्थशास्त्र ऋषि ने बताया है। इसमें औषधियों की संख्या 125 के लगभग बताई गई है, जो कि 107 स्थानों पर पाई जाती है। औषधि में सोम का विशेष वर्णन है। ऋग्वेद में च्यवनऋषि को पुनः युवा करने की कथा भी मिलती है। इसमें जल चिकित्सा, वायु चिकित्सा, सौर चिकित्सा, मानस चिकित्सा और हवन द्वारा चिकित्सा का आदि की भी जानकारी मिलती है।
यजुर्वेद यह वेद गद्य मय है। इसमें यज्ञ की असल प्रक्रिया के लिए गद्य मंत्र हैं, यह वेद मुख्यतः क्षत्रियों के लिए होता है।
यजुर्वेद के दो भाग हैं -
कृष्ण : वैशम्पायन ऋषि का सम्बन्ध कृष्ण से है। कृष्ण की चार शाखाएं हैं।
शुक्ल : याज्ञवल्क्य ऋषि का सम्बन्ध शुक्ल से है। शुक्ल की दो शाखाएं हैं। इसमें 40 अध्याय हैं। यजुर्वेद के एक मंत्र में च्ब्रीहिधान्यों का वर्णन प्राप्त होता है। इसके अलावा, दिव्य वैद्य और कृषि विज्ञान का भी विषय इसमें मौजूद है।
सामवेद - सामवेद गीतात्मक यानी गीत के रूप में है। चार वेदों में सामवेद का नाम तीसरे स्थान पर आता है। ऋग्वेद के एक मंत्र में ऋग्वेद से भी पहले सामवेद का नाम आने से कुछ विद्वान वेदों को एक के बाद एक रचना न मानकर हर एक को स्वतंत्र मानते हैं। सामवेद में उन गेय छंदों की अधिकता है, जिनका उपयोग गान यज्ञों के समय होता था। 1824 मंत्रों के इस वेद में 75 मंत्रों को छोड़कर शेष सब मंत्र ऋग्वेद से ही लिए गए हैं। इस वेद को संगीत शास्त्र का मूल माना जाता है। इसमें सविता, अग्नि और इंद्र देवताओं के बारे में जिक्र मिलता है। यज्ञ में गाने के लिए संगीतमय मंत्र हैं, यह वेद मुख्यतः गंधर्व लोगो के लिए होता है। इसमें मुख्य रूप से 3 शाखाएं हैं, 75 ऋचाएं हैं।
अथर्ववेद- इसमें जादू, चमत्कार, आरोग्य, यज्ञ के लिए मंत्र हैं। यह वेद मुख्य रूप से व्यापारियों के लिए होता है। इसमें 20 काण्ड हैं। इसके आठ खण्ड हैं जिनमें भेषज वेद और धातु वेद ये दो नाम मिलते हैं।
http://religion.bhaskar.com/news/JMJ-SAS-origin-of-the-veda-4880682-NOR.html