Friday, August 5, 2016

आत्मा को अमर क्यों माना जाता है?

धार्मिक ग्रंथों के अनुसार आत्मा ईश्वर का अंश है। इसलिए यह ईश्वर की ही तरह अमर है। संस्कारों के कारण इस दुनिया में उसका अस्तित्व भी है। वह जब जिस शरीर में प्रवेश करती है, तो उसे उसी स्त्री या पुरुष के नाम से पुकारा जाता है। आत्मा का कोई रंग और कोई रूप नहीं होता है, इसका कोई लिंग भी नहीं होता है।

ऋगवेद में बताया गया है
जीवात्मा अमर है और शरीर नाशवन। जब तक शरीर में प्राण रहता है तब तक वह क्रियाशील रहता है। इस आत्मा के संबंध में बड़े-बड़े पंडित और मेधावी पुरुष भी नहीं जानते। इसे ही जानना मानव जीवन लक्ष्य है।

बृहदारण्यक उपनिषद् में आत्मा के संबंध में लिखा गया है
आत्मा वह है, जो पाप से मुक्त, जिसे मौत व शोक नहीं होता है। भूख और प्यास भी नहीं लगती है, जो किसी वस्तु की इच्छा नहीं रहती, किसी वस्तु की कल्पना नहीं करती, इसलिए उसे कल्पना करनी चाहिए। यह वह सत्ता है जिसको समझने की कोशिश करना चाहिए।

श्रीमद्भगवद्गीता में आत्मा की अमरता के विषय पर बताया गया है

न जायते म्रियते वा कदचिन्नायं भूत्वा भविता न भूय:
अजो नित्यं शाश्वतोयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।

यानी यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मती है न मरती है। आत्मा अजन्मी, नित्य, सनातन और पुरातन है। शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारी जाती।

वसांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोपराणि।
और शरीरराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही।।
जैसे मनुष्य पुराने कपड़ों को छोड़कर दूसरे नए कपड़ों को पहन लेता है। वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीर को त्यागकर दूसरे नए शरीर को जाता है। शरीर की मृत्यु के बाद आत्मा को प्रेत योनि से मुक्ति के लिए 13 दिनों का समय लगता है। इसलिए इस दौरान आत्मा की शांति व मुक्ति के लिए पूजा पाठ, दान दक्षिणा आदि अनुष्ठान किए जाते हैं। इसके बाद आत्मा पितृलोक जाती है। आत्मा की अमरता का यही दृढ़ विश्वास है।

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