Monday, October 20, 2014

तुलसी के पत्ते से भगवान विष्णु की पूजा का पुण्य

इन दिनों चतुर्मास चल रहा है। भगवान विष्णु शेषनाग की शैय्या पर शयन कर रहे हैं। शास्त्रों के अनुसार चतुर्मास में दीपावली के चार दिन पहले एक एकादशी आती है जिसे रमा या रंभा एकादशी के नाम से जाना जाता है। चतुर्मास की अंतिम एकादशी होने के कारण इस एकादशी का विशेष महत्व बताया गया है।
मान्यता है कि जो व्यक्ति इस दिन लक्ष्मी नारायण का ध्यान करते हुए व्रत रखते है वह पूर्वजन्म के पापों से मुक्त होकर उत्तम लोक में जाने के अधिकारी बन जाते हैं। इस व्रत में तुलसी की पूजा एवं भगवान विष्णु को तुलसी पत्ता अर्पित करने का बड़ा महत्व बताया गया है।
जो व्यक्ति यह व्रत नहीं भी रखते हैं वह इस एकादशी के दिन अगर लक्ष्मी नारायण की पूजा करें और उन्हें तुलसी पत्ता अर्पित करें तो उन्हें भी बड़ा पुण्य प्राप्त होता है।पुराणों में बताया गया है भगवान विष्णु को सबसे अधिक प्रिय तुलसी का पत्ता है। जिस घर में तुलसी की पूजा होती है और नियमित तुलसी को धूप-दीप दिखाया जाता है उस घर में भगवान विष्णु की कृपा सदैव बनी रहती है।
शास्त्रों में यह भी बताया गया है कि भगवान विष्णु की पूजा में अगर तुलसी पत्ते के साथ भोग अर्पित नहीं किया जाता है तो भगवान उस भोग को स्वीकार नहीं करते।
इसका कारण यह है कि भगवान विष्णु ने जलंधर नामक असुर की पत्नी वृंदा का सतीत्व व्रत से विमुख करके जलंधर का वध करने में सहयोग किया था। वृंदा को जब भगवान विष्णु के छल का पता चला तो उसने भगवान विष्णु को पत्थर होने कि शाप दे दिया। सलिए शलिग्राम रुप में भगवान विष्णु की पूजा होती है। लेकिन देवताओं के मनाने पर वृंदा ने भगवान विष्णु को शाप से मुक्त कर दिया लेकिन प्राण त्याग दिया।
भगवान विष्णु ने उसी समय वृंदा को वरदान दिया कि तुम मुझे सबसे प्रिय रहोगी और बिना तुम्हारे मैं भोजन भी ग्रहण नहीं करुंगा। वृंदा तुलसी के पौधे के रुप में प्रकट हुई और भगवान विष्णु ने तुलसी को अपने मस्तक पर स्थान दिया।
रमा एकादशी की कथा
प्राचीन काल में मुचुकंद नाम के धर्मात्मा एवं विष्णुभक्त राजा राज्य करता थे। यह स्वयं भी एकादशी का व्रत रखते थे और इनकी प्रजा भी एकादशी का व्रत करते थे। यही राजा की चंद्रभागा नाम की एक कन्या थी। उसका विवाह राजा चंद्रसेन के पुत्र शोभन के साथ हुआ था। एक समय शोभन अपने ससुराल आया। राजा की आज्ञा के कारण भूख-प्यास सहन नहीं कर पाने के बावजूद भी शोभन को एकादशी का व्रत रखना पड़ा।
शारीरिक रुप से कमजोर होने के कारण व्रत करने से शोभन की मृत्यु हो गई। इससे राजा
, रानी और पुत्री को अत्यंत कष्ट हुआ। राजा ने व्यथित मन से सुगंधित चंदनादि के काष्ठ से चिता तैयार कर शोभन का अन्त्येष्टि संस्कार कर संपूर्ण मृत कर्मों को पूर्ण करा दिया। चंद्रभागा अपने पति वियोग में डूबी रहने लगी और अपना सारा समय भगवान की आराधना में लगाने लगी।
दूसरी ओर एकादशी व्रत करते हुए शरीर त्याग करने से शोभन को मंदराचल पर्वत पर स्थित देव नगर में आवास मिला। वहां रंभादि अप्सराएं शोभन की सेवा करने लगीं। एक बार महाराज मुचुकुंद के राज्य में रहने वाला ब्राह्मण तीर्थयात्रा करता हुआ मंदराचल पर्वत पर पहुंचा जहां उसने शोभन को देखा। शोभन ने भी ब्राह्मण को पहचान लिया।
ब्राह्मण ने शोभन से कहा-
राजा मुचुकुंद और आपकी पत्नी चंद्रभागा कुशल से हैं। लेकिन हे राजन! हमें बड़ा आश्चर्य हो रहा है, कि ऐसा सुंदर नगर जो न कभी देखा न सुना, आपको किस प्रकार प्राप्त हुआ? शोभन बोला- यह सब रमा एकादशी व्रत का प्रभाव है, लेकिन यह अधिक दिनों तक नहीं रहने वाला है क्योंकि मैंने इस व्रत को श्रद्धा रहित होकर किया था अगर आप मुचुकुंद की कन्या चंद्रभागा को यह वृत्तांत कहें तो यह स्थिर हो सकता है।
ऐसा सुनकर ब्राह्मण ने चंद्रभागा से शोभन के प्राप्त होने का संपूर्ण वृत्तांत कह सुनाया। ऋषि वामदेव ने मंत्रों के प्रभाव से चंद्रभाग को शोभन के पास पहुंचा दिया। चन्द्रभागा ने अपने पुण्य का एक हिस्सा अपने पति को दिया। इसके प्रभाव से दोनों को अनंत काल तक देवताओं के समान रहने का सुख प्राप्त हुआ।

Friday, September 5, 2014

बड़ों के पैर क्यों छूने चाहिए

उज्जैन। बड़ों के पैर छूकर आशीर्वाद प्राप्त करना न सिर्फ एक अच्छा आचरण माना जाता है, बल्कि  प्यार बनाए रखने में भी सहायक सिद्ध होता है। पैर छूने के भी अनेक तरीके हैं। आम तौर पर झुककर पैरों या जूतों को हाथ लगाकर सम्मान दिया जाता है, लेकिन बस थोड़ा सा झुककर हाथ नीचे ले जाकर भी यह रस्म पूरी हो जाती है। क्या आपने कभी सोचा है कि यह रस्म क्यों है और इसके फायदे क्या हैं, अगर नहीं तो आज हम आपको बताने जा रहे हैं बड़ों के पैर छूने से होने वाले फायदों के बारे में....

हिन्दू संस्कृति में बड़ों का सम्मान व सेवा का व्यवहार व संस्कार में बहुत महत्व बताया गया है। तमाम हिन्दू धर्मग्रंथ जैसे रामायण, महाभारत आदि में बड़ों के सम्मान को सर्वोपरि बताया गया है। इनमें माता-पिता, गुरु, भाई सहित सभी बुजुर्गों के सम्मान के प्रसंगों में बड़ों से मिला आशीर्वाद संकटमोचक तक बताया गया है। जिन लोगों की कुंडली में पितृदोष होता है, उन्हें रोज सुबह अपने घर के बड़ों का अशीर्वाद लेना चाहिए। इससे पितृदोष और कामों में आ रही रूकावट दूर होती है।
हिन्दू धर्मशास्त्रों में कहा गया है
 अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविन:। चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम्।।  सरल शब्दों में मतलब है कि जो व्यक्ति हर रोज बड़े-बुजुर्गों के सम्मान में प्रणाम व चरणस्पर्श कर सेवा करता है। उसकी उम्र, विद्या, यश और ताकत बढ़ती जाती है। इसलिए यदि जीवन में सफलता चाहिए तो रोज घर के बड़ों के चरण स्पर्श करने चाहिए।
असल में, बड़ों के सम्मान से आयु, यश, बल और विद्या बढ़ने के पीछे मनोवैज्ञानिक और व्यावहारिक वजह भी है। चूंकि सम्मान देते समय खुशी का भाव प्रकट होता है, जो देने और लेने वाले के साथ ही आस-पास के माहौल में भी उत्साह, उमंग व ऊर्जा से भरता है। आयु बढ़ाने में प्रसन्नता, ऊर्जा और बेहतर माहौल ही अहम और निर्णायक होते हैं। वहीं, सम्मान देना व्यक्ति का गुणी और संस्कारित होने का प्रमाण होने से दूसरे भी उसे सम्मान देते हैं। यही नहीं, ऐसे व्यक्ति को गुणी और ज्ञानी लोगों का संग और आशीर्वाद कई रूपों में प्राप्त होता है। अच्छे और गुणी लोगों का संग जीवन में बहुत बड़ी शक्ति बनकर बेहतर नतीजे तय करता है। इस तरह बड़ों का सम्मान आयु, यश, बल और ज्ञान के रूप में बहुत ही सुख और लाभ देता है।

इस दिशा में मुंह करके खाना खाएंगे तो प्रसन्न होंगी मां लक्ष्मी, ध्यान रखें ये बातें

उज्जैन। धर्मग्रंथों में भगवान के दर्शन के लिए सबसे पहले अन्न को ही ब्रह्म रूप में देखने की सीख देकर लिखा गया है। 'अन्नं ब्रह्म इति व्याजाना। साथ ही, भोजन व भोजन की शैली के बारे में भी अनेक बातें कही गए हैं। इसमें से प्रमुख है....

सुरभिस्त्वं जगन्मातर्देवि विष्णुपदे स्थिता। सर्वदेवमयी ग्रासं मया दत्तमिमं ग्रस।।

गौरतलब है कि आज के दौर में गुजरे जमाने की तुलना में भोजनशैली और व्यवस्था में बड़ा बदलाव आया है। जाहिर है इससे इंसान की सेहत, सोच, स्वभाव और व्यवहार में भी हुए कई बुरे बदलाव अक्सर बीमारियों या उग्र स्वभाव के रूप में नजर आते हैं। हमारे धर्मग्रंथों में भोजन को भी बेहद महत्वपूर्ण माना गया है। कहा गया है कि यदि भोजन के समय कुछ छोटी-छोटी चीजों का ध्यान रखा जाए तो शरीर हमेशा स्वस्थ बना रहता है। साथ ही, मां लक्ष्मी भी प्रसन्न रहती हैं।

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भोजन के दौरान पूर्व दिशा में मुंह रखकर खाना खाने से उम्र बढ़ती है। इसी तरह पश्चिम दिशा में मुंह रख भोजन करने से श्री यानी मान, प्रतिष्ठा, ऐश्वर्य, वैभव व तमाम सुख-शांति के साथ लक्ष्मी कृपा बरसती है। दक्षिण दिशा की ओर मुंह रखकर भोजन करने से भरपूर यश मिलता है व उत्तर दिशा में भोजन करने से सत्य मिलता है यानी व्यक्ति का जीवन सात्विक प्रवृत्ति व आचरण के साथ गुजरता है।
- हिन्दू धर्म में भोजन से जुड़ी परंपराओं में श्राद्ध हो या बलिवैश्वदेव अलग-अलग रूप में हर रोज भोजन का पहला ग्रास अलग-अलग प्राणियों को देना भी जरूरी बताया गया है। इनमें सबसे ज्यादा शुभ है- देवप्राणी गाय को गो ग्रास देना। खाने से पहले गो ग्रास देने से घर पर हमेशा लक्ष्मी कृपा बनी रहती है।

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कम खाने से इंसान निरोगी रहता है तो जाहिर है कि उसकी उम्र बढ़ती है यानी लंबे वक्त तक जीवित रहता है। कम भोजन से बना सेहतमंद और बलवान शरीर। मन, वचन व व्यवहार को भी साधकर जीवन के सारे सुख बटोरना आसान बना देता है। साथ ही, कम खाने वाले इंसान पर मां लक्ष्मी प्रसन्न रहती है जबकि बहुत अधिक खाने से घर में दरिद्रता रहती है।
- भोजन से पहले आचमन करना चाहिए। उसके बाद सिर, मस्तक आदि ऊपरी अंगों को गीले हाथों से छूना चाहिए। इस तरह हाथ, पैर और मुंह को गीला कर भोजन करने से लक्ष्मी प्रसन्न हो जाती हैं। इस क्रिया को ''पञ्चाद्र्र'' शब्द से भी पुकारा गया है।

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जिस भोजन को ग्रहण कर रहें हैं उसकी बुराई न करें। भोजन के बाद भी आचमन और मुख प्रक्षालन यानी मुंह धोकर सिर, मस्तक आदि ऊपरी अंगों को गीले हाथों से छूकर उठना चाहिए।
- खाने के वक्त बिल्कुल शांत रहना चाहिए। भोजन के सामने आने पर प्रसन्न होना चाहिए। मन की सारे तनाव अन्न के दर्शन कर भूल जाना चाहिए।

अन्न का सम्मान करते हुए उसे पहले प्रतीकात्मक तौर पर प्राण वायु को देना चाहिए यानी भोजन से पहले गहरी सांस लेना चाहिए और भगवान का आवाह्न करना चाहिए। ऐसा करने से मां लक्ष्मी हमेशा प्रसन्न रहती है।

Wednesday, February 5, 2014

भारत की गीर गाय

भारत की गीर गाय के नाम 65 लिटर दूध देने का रिकार्ड है.

भारत में 18 करोड़ गाय है जिनमे 13 करोड़ गाये बच्चा देने लायक है और इनमे से करीब 70 % देशी नस्ल की गाये कम दुध् देने वाली नस्ल है. जिनको उन्नत नस्ल बनाने के लिए दूध की खान "गीर" गायो के सांडों से "क्रास" कराना चाहिए और लोग कर भी रहे हैं परन्तु गीर नस्ल के सांडों की बेहद कमी हो गयी है जिसके लिए हमारी मुर्खता जिम्मेदार है. हम गायो की फिकर करते हैं लेकिन सांडों के बारे में सोचते ही नहीं....एडवांस हो चुके हैं..नंदी की कदर क्या जाने..

उधर सिर्फ 5000 के करीब गीर गाय पुरे भारत में बची है जो शुद्ध है परन्तु इनके सांडो की संख्या 300 से भी कम है क्योकि हम एडवांस हो चुके हैं, हमें सिर्फ गाय का थन ही दिखता है.

अब आप सोचिये.....13 करोड़ गायो को यदि हम गीर नस्ल से ज्यादा दूध देने वाली और बीमार न होने वाली दुमरेजी गाय बनाना भी चाहे तो 13 करोड़ गाय और 300 सांड यानी एक सांड के पीछे (13,00,00,000/300 = 4,33,333 गाये ) 4 लाख से ज्यादा गाये आयेंगे जो असंभव है. यह आंकडा थोड़ा सा कम ज्यादा हो सकता है लेकिन गलत नहीं है. सांडो की इतनी कमी के पीछे बहुत सारी साजिस भी है.

थोड़ा सा पैसा कमाने के चक्कर में खुद कुछ हिन्दू भी छुट्टा सांडो को चोरी चोरी क़त्ल खानों को बेच रहे हैं. यदि हर १० गाव में एक गीर छुट्टा सांड पाल दिया जाये तो भारत में दूध की नदी फिर से बहेगी.